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तरसती ज़िंदगी

तरसती ज़िंदगी

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सुर्ख लाल-सी पङी

कभी भूख तो कभी पानी को तरसती है।

सिर्फ आवश्यकताओं की पूर्ति में जुटी ये जिंदगी

कभी धूप तो कभी छाँव में गुथी ये जिंदगी।

सपनों में रोटी खाने को मजबूर ये जिंदगी ।

निराशाओं के दलदल में धँसती ही जाती है।

पर जीती है खुद्दारी से,वतनपरस्ती से

उस शांति से जो सोने के महल में भी नसीब नहीं होती।

ये शांति ही उसकी शक्ति है जो

देती है झुका अमीर परस्तों को।

कर देती है शर्मिंदा इस तपती धूप की तपीश को।

मिटा देती है हर जुल्मों सितम को।

झंझोङती है आत्मा को और कर देती है मजबूर

मेहनतकश मजदूर से कंधे-से-कंधा मिला मेहनत करने को

उसकी सुख शांति को बाँटने को

उसके हर जुल्मों सितम में हिस्सेदार बनने को ।।



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