तितली
तितली
तितली बन मैं
उपवन में महकती रहूं,
इक आंगन के
महकते फूलों की शबनम
दूजे में फैलाती रहूं।
बस इस सोच का
पालन मैं करती रहूं।
किन फूलों को मैं
चुनूं, यह
सोच भी मेरी नहीं।
शाख पर बैठे
हैं वो, जो बनाते हैं,
दायरा मेरा,
बस, उनकी ही सोच,
का मैं पालन करती रहूं।
उड़ने के काबिल
तो हूं मैं,
यह मालूम है,
मुझे,
मगर मेरे पैरो ,
की उड़ान, कितनी हो,
वो शाख पे बैठे
हैं जो,
मेरे परों को कुतरते,
रहते हैं जो,
बस, उनकी बनाई हदों,
का में पालन करती रहूं।
अब सोचती हूं,
मैं तितली हूं,
खूबसूरत हूं,
काबिल भी हूं,
आखिर, इन फूलों
की महक को फैलाती
मैं ही तो हूं,
इन के जीवन रूपी,
फलों को इक शाख
से दूजे पे ले जाती,
मैं ही तो हूं,
क्यूं ना अपना दायरा
बढ़ा लूं,
काबिल हूं जितनी
उतनी, उड़ान तो लूं,
मुझे हक, तो हो,
की में फूलों को
चुन सकूं,
अपने संसार को
महकते फूलों की
शबनम दे तो सकूं।
खुद ही अपनी मंजिल
की पहचान बन तो सकूं,
अपने पंखों को उनकी
असली उड़ान दिखा तो सकूं
में खुद को पहचान तो सकूं,
तितली ही रहूं,
मगर अपने उपवन
को चुन तो सकूं
चुन तो सकूं।
