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kavita Chouhan

Fantasy

4  

kavita Chouhan

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*****सूरज न निकला***

*****सूरज न निकला***

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मेरे वतन सूरज न निकला

गहन तिमिर यूँ घनघोर बना

सूक्ष्म प्रभा को हिय तरसा

था पयोद घना फिर न बरसा।


गुम थी जहाँ इक उजियारी

रविकर आभा प्रखर न्यारी

ओट से मन बेबस निहारता

सजल अंखियों संग दुलारता।


इक ओर इठलाती रश्मि सारी

कहीं बरबस सी निशी घनेरी

विस्तृत नभ सिहरन अलबेली

सुगंधित बयार संग अठखेली।


हर्ष प्रमुदित कुछ मुख दमके

नवीन उल्लास संग ही चमके

जिस ओर सजा वो उजियारा

था वतन वो कितना निराला।


 आयेगा एक दिन वतन मेरे

भर देगा रवि रम्य दीप्ति सी

छँट जायेगा तब तिमिर सारा

दमक उठेगी अँधियारी गली।



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