सपना
सपना
देख कर निजकर मन बहुत घबराया ,
उज्ज्वल सी हथेलियाँ हो गई काली स्याह।
देवदूत से पूछा मैं ने ये कैसी है माया,
ये तेरे कर्मों का रंग देवदूत फरमाया।
मल-मल के साबुन से धोया रगड़-हार बैठी,
जाने कितने जतन किये पर कालिख न हटी ।
गुस्से में हाथ को दीवार पे मारा, तो आँख गई थी खुल ,
अरे ... ये तो सपना था देवदूत था गुल ।
फटाफट हाथों को देखा वो थे निर्मल-कोमल,
पर सपने की बात आँखों से नहीं हो रही थी ओझल ।
फिर कभी अपने हाथ न डरायें कुछ ऐसा करना होगा,
अपना ये जीवन मुझको मानवता को समर्पित करना होगा ।
