"सफ़र "
"सफ़र "
चलते-चलते सफ़र में,
बीच राह मुझे...
एक मासूम से मुलाकात हो गई
एका एक वो मुझसे सवाल एक कर गया...
बता सकेंगी क्या आप माँ किसे कहते हैं....?
अचंभित, मूँक, लाचार और बेबस,
अपलक झपके मैं खड़ी...
एक मासूम, मासुमियत से
क्या मुझसे पूछ रहा...
क्या कहूँ क्या चुप रहूँ,
ना सूझ रहा अब मुझे,
कुछ पल चुप मैं खड़ी रही
फ़िर थाम कर हाथ उसका
आगे मैं थोड़ा बड़ी....!!
दरख़्तों के पास आकर
दरख़्तों के नीचे...खड़ा
मैंने उसको कर दिया
दिखलाई मैंने डालियाँ जिस पर बने थे घोसलें
और फिर मैंने उससे कहा,
देख रहे हो परिंदों के घोसले
जो दे रहे हैं उन्हें आसियाँऔर
जो धूप में देते छाव हमें बन कर आँचल का
वही हमारी माँ है....!
देख आँखों में चमक उस मासूम के,
थोड़ा और आगे मैं बड़ी,
देख रहे हो वो गुलिस्ता फूलों से है भरा....
भंवरे और तितलियां,
ले रहे है इन से भोजन यहाँ...
रंग इनके देखकर
खुशबू फिजाओं में फैल कर
देती है हम सबको खुशी...
वही गुलिस्ता है मां हमारा....!
उसके होठों पर अब चौङी सी मुस्कान खिल गई
थोड़ा आगे और बड़े कर
धरा की ओर देख कर...
बतलाने में उसको लगी,
आओ बैठो तुम धरा पर
चलते हैं हम सब इसी धरा पे
और थक गए सो जाते इसी पे
जब लगने लगती है भूख
बैठ कर इसी धरा पे
खाना खाने लगते यहाँ
जब भी आता है रोना हमें
लिपट कर इसी धरा पे
लगते हैं रोने सदा,
सबसे बड़ी है माँ यहीं हमारी
सुन लो तुम बेटा जरा...!!
ये धरा ये गगन ये
ऊंचे ऊंचे दरख़्त ये टहनियाँये
तालाब ये नदियों का ठंडा पानी
ये गुलिस्ता और ये चमन
जो पोषण करते हैं हमारा सदा,
यहीं सब हमारी मां हैं, यहीं हमारी मां हैं.... !!
सुनके सारी बातें ये
मासूम वो जोर से खिलखिला पड़ा
हंसते-हंसते कहने लगा
रोज़ ही तो मिलता हूं मैं
फिर भी मैं अनजान था
आज तक फिर क्यों मैं ...??
मां के नाम से उदास था
डाल कर बाँहें गले में
माथा मेरा उसने चूम लिया,
प्यार से बोला तभी ....
अच्छी दोस्त तुम मिली
जो तुमने आज माँ से, मेरी मुझे मिला दिया....
निशब्द बनी मैं खड़ी,
उसके आगे कुछ ना कह सकी....!
