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दयाल शरण

Tragedy

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दयाल शरण

Tragedy

सोच

सोच

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जितना भी निकलना

चाहता हूँ

सोच के बोझ तले

दबाया जाता हूँ,


मुझे जो दिखता है

वह कुछ है

दिखाया जाता है

वह कुछ और ही है।


सोच ही तो है मुझको

बदलना चाहती है

दिल अभी भी वजूदन 

जिंदा रहना चाहता है,


आंख में कीचड़ सी

चिप-चिपाहट है

उनींदा हूं मगर फिर भी

जगाना चाहता है।


जिंदगी की होड़ में बेहतर 

साबित होने की जिद है

जो सही था उसे गलत

साबित करने की जिद है,


दलीलें, चीखें, आज का

बाजार ये हैं

सच की दुकानों पे

अब सामान नहीं है।


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