संवेदन
संवेदन
पशु से करता पृथक मनुज को, मन का वह संवेदन है। श्रेष्ठ बनाता हमें सृष्टि में , है जो बस विह्वल मन है ।
बनकर अश्रु बहा करता जो करुण- नयन में ,
परिलक्षित अर्चन- वंदन- सम होता जो मन के आँगन में,
संरक्षित अस्तित्व जो रखता, आत्मा का स्पंदन है !
पशु से करता पृथक मनुज को ... ... ...
बिन जिसके पनपा न कोई प्रेम का बिरवा शुष्क धरा पर,
पिघला न पाया है पत्थर प्रभु भी आकर,
भावों का निर्मल निर्झर वह ,चेतन का उद्दीपन है !
पशु से करता पृथक मनुज काे ... ... ...
दुनिया के सारे धर्माें में महिमा इसकी गाई जाती,
इसके ही दम सदा-सर्वदा मानवता बन जाती थाती,
भावलोक का दिग्दर्शन यह, मानस का यह दर्पण है !
पशु से करता पृथक मनुज को ... ... ...
ईंट और गारे से मिलकर भव्य इमारत बन जाती है,
भावों के आरोपण से वह पावन मंदिर बन पाती है ,
अनुप्राणित हो सका उन्हीं से, मूरत का हर कण-कण है !
पशु से करता पृथक मनुज को ... ... ...
कर्म- विपाक के देख त्रास सिहरन-सी आ जाती तन में ,
पीड़ित की व्याकुलता भी जब छाने लगती है निज मन में,
उन्नत भाव- रंगों से होता, निर्मित एक आलेखन है !
पशु से करता पृथक मनुज को ... ... ...
सहिष्णुता की अलख जगा लेना अंतस में,
परस्वार्थी बन रहना करके स्व को वश में ,
भव-भव के संचित पुण्यों से, मिलता यह मनुष्य तन है !
पशु से करता पृथक मनुज काे ... ... ...
पशु से करता पृथक मनुज को, मन का वह संवेदन है।
श्रेष्ठ बनाता हमें सृष्टि में, वह केवल विह्वल मन है ।