स्नेह का बादल
स्नेह का बादल
जीवन-संध्या में क्यों ?
तू बरस रहा बन स्नेह का बादल
भीग रहा अधूरापन झलकाता
मेरे जीवन का आँचल।
मैं भिक्षुणी स्नेहांजलि लिए
दिन भर भटकती रही।
पा सकी न प्रेम-भिक्षा,
झोली मेरी खाली ही रही।
गेरुएपन की आड़ में
रक्त हृदय का छिपाती रही
थोड़ा-कुछ पाने की आस में,
सर्वस्व लुटाती रही।
साधना-अर्चना की हृदय में
जगी ऐसी लगन।
एक साध्वी के रूप में
अब मैं बन गयी जोगन।
साहस नहीं है पा सकूँ,
तुझे भर कर नयन।
काल-रात्रि की ओर चले,
थके -हारे मेरे चरण।
जीवन-संध्या में क्यों ?
तू बरस रहा बन स्नेह का बादल
भीग रहा अधूरापन झलकाता
मेरे जीवन का आँचल।
