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Ratna Pandey

Drama

5.0  

Ratna Pandey

Drama

संध्या की जलन

संध्या की जलन

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ऊषा इतनी गोरी है, मैं क्यों काली काली हूँ,

ऊषा की तरह मैं भी चाहती हूँ,

स्वर्णिम सी चमकना,

दुनिया भर में अपनी किरणें चाहती हूँ बिखेरना।


नहीं चाहिए संग चंदा का मुझे,

मैं सूरज के संग चाहती हूँ रहना,

नहीं चाहती घुट-घुट कर जीना,

सूरज के संग रहूँगी तो होगा रंगीन मेरा हर सपना।


नहीं कोई डरता चंदा से, उसके सम्मुख ही होते हैं

चोरी, डकैती, ख़ून और बलात्कार जैसे काम सभी,

मैं भी होती हूँ साथ सदा,

देखती रहती हूँ सब चुपके से सहमी सी।


अंदर ही अंदर दम घुटता है,

दुनिया का काला चेहरा कितना खौफ़नाक हो सकता है,

मैं आँखों देखी गवाह हूँ इंसानों के गुनाहों की,

किन्तु बेज़ुबान हूँ इसीलिये दम घुटता है।


सूरज से सब डरते होंगे,

ऊषा कितनी ख़ुशकिस्मत है,

हमेशा प्रकाशित रहती है,

इसी उधेड़बुन में संध्या व्यस्त रहती है।


तभी ऊषा के जाते जाते, संध्या उसे मिल जाती है,

पथ में उससे टकरा जाती है,

अपने दिल की बात उसे बतलाती है,

दुख के कारण उसकी आँख डबडबाती हैं,

तभी ऊषा उसे समझाती है,

तुम नाहक ही मुझसे जलती हो।


तुम गलत सोचती हो संध्या,

कोई सूर्य से नहीं डरता,

मैं स्वर्णिम रोशनी देती हूँ,

स्वर्णपुरी में रहती हूँ,

किन्तु तुम्हारी तरह ही सब जुर्म,

चुपके से सह लेती हूँ।


यह इंसान बड़ा ही ढ़ीठ है,

उसे चोरी, डकैती, ख़ून और बलात्कार के लिए

अंधेरे की ज़रूरत ही नहीं है,

वह सूर्य के समक्ष भी अपनी निर्लज्जता दिखाता है,

किन्तु सूरज कुछ भी नहीं कर पाता है।

निराश हताश होकर मूकदर्शक सा,

सब कुछ देखकर, मुझे साथ लेकर,

चुपके से ढ़ल जाता है,

और कहीं छुप जाता है।


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