समुंदर की ओर
समुंदर की ओर
समाज से ही नदी,
नदियाँ, समुन्दर की ओर चलते रास्ते में
एक पथिक समुन्दर और नदियाँ को
इशारों से बुला रहा है,
कोई उसकी पुकार न सुने,
अकेला वह गुमसुम बीच सड़क में !
समाज की राह बहुत लम्बी, सब पागल,
यन्त्र जैसे धावित, अनिश्चता की ओर !
स्वप्न ध्वस्त, अलसायी आँखों में स्मृतियाँ,
दु:ख सब सिन्धु-साम्राज्य ,
क्या करेगा पथिक ?
खोजने वाला हाथ बहुत छोटा,
गगन को छूने की सामर्थ्य मन में ही तो है,
दिग्वलय माप नहीं पाती उंगलियाँ
हर सूरत में होता है क्या ?
एक-एक दर्पण,
अस्थि-माँस-चमड़े का,
सूखी हुई चम
क !
है क्या रुधिर में आवेग की वाणी ?
कौन क्या खोज रहा है ?
सब छुपा है क्या मस्तिष्क के खेलों में !
संभवत: हम पराजित होंगे,
टूट जायेंगे हम शीशों की चमक खोजते ही,
सो जायेंगे आहट में।
नहीं ! पथिक कभी विश्राम लेता नहीं !
चलना है कर्त्तव्य उसका हर क्षण,
मिले या न मिले, अन्वेषण ही जिन्दगी है,
ऐसे व्यतीत होना है।
तमाम राहों की क्लान्ति,
ताड़ने की मुस्कान में !
चलो ! हम चुपचाप सहेंगे यंत्रणा,
नदियाँ, समुंदर को छूने की ख़ुशी में,
उसकी ठंडी हवा छुए हमारे दिल को,
शीशा टूटने की आवाज जैसे सुन न सके
कभी खयालों में !