"आत्म स्वर"
"आत्म स्वर"


भीतर से आवाज आना हो गई बंद है
अच्छे शख्स रह गये आजकल चंद है
जिनके भीतर से आवाज आती मंद है
वो ज़रा ध्यान दे, न तो होगी यह बंद है
आजकल फूलों में भी नहीं रही गंध है
कृत्रिम पुष्पों से जो ले रहे हम सुगंध है
भीतर से आवाज आना हो गई बंद है
लोग बगुले जैसे कर रहे झूठ, पाखंड है
बाहर से श्वेत, भीतर रखते मछली गंध है
फिर कैसे आये उन्हें सत्य की कोई गंध है
कागज के फूलों पर लिखते सब निबंध है
दिल के भाव क्या समझे जो खुद अपंग है
लोग अपने छोड़, गैरों से रखते सम्बंध है
आदमी उलझा खुद मकड़ जाल के फंद है
कभी न खत्म न हो पा रहा भीतर, द्वंद्व है
भीतर के दरिया में खत्म हो गई उमंग है
भीतर से आवाज आना हो गई बंद है
प्रकाश पर आज लगे हुए तम कलंक है
झूठ और सत्य में चल रही, अब जंग है
जो पाप, झूठ में लिप्त हो रहे अत्यंत है
आत्म स्वर से कटती उनकी पतंग है
जिसकी आत्मा का स्वर होता, बंद है
बाह्य मनु हो, भीतर होता दैत्य अंश है
वो इस दुनिया में होते यहां अक्लमंद है
जो सच देखता है, होता नहीं वो अंध है
आत्मा का सुनाई देता एक बार स्वर है
जो अनसुना करे, होता आत्मस्वर भंग है
पर वही पंछी उड़े आसमां में स्वछंद है
जिसका आत्म स्वर होता भीतर बुलंद है
वही बनता इस ज़माने में मस्त मलंग है
जिसका जिंदा हो, आत्मस्वर मृत्युपर्यंत है
वही वास्तव में होता मनुष्य रूपी संत है।