होली का उपहार
होली का उपहार
यह अमरकांत और सुखदा के मिलन की कहानी।
मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से आई सब ने यह जानी।
कहानी का नाम तो है "होली का उपहार" निराला।
प्रेमचंद ने देश प्रेम की पृष्ठ भूमि पर इसे रच डाला।
मैकूलाल शतरंज खेलने आए थे अमरकांत के द्वार।
अमरकांत तब हो रहे थे कहीं बाहर जाने को तैयार।
अमरकांत ने मैकूलाल को बहुत उत्साह से बतलाया।
ससुराल जा रहा हूं, ससुरजी ने आग्रह कर है बुलाया।
मैकूलाल ने कहा कि कोई सौगात भी ली है या नहीं?
अमरकांत ने पूछा, सस्ते दामों में कुछ मिलेगा कहीं?
दोनों मित्रों में बहुत देर तक सोच विचार चलता गया।
तब गुज़रती पारसी स्त्री की साड़ी पर मन अटक गया।
अमरकांत ने सोचा, साड़ी गोरे रंग पर ख़ूब खिलेगी।
मैकूलाल ने बतलाया, हाशिम की दुकान पर मिलेगी।
अमरकांत साड़ी लेने हाशिम की दुकान पहुंच गया।
वह सामने से नहीं पिछवाड़े के दरवाज़े से था गया।
साड़ी लेकर जैसे ही सामने के द्वार पर वह आया।
देखा, स्वयं सेवकों ने था वहां आकर डेरा जमाया।
उन्होंने हाथ में विदेशी साड़ी देखकर बवाल मचाया।
लोगों ने अमरकांत को उलहाने देकर मामला गर्माया।
बहस बाज़ी और छीना झपटी की कहानी शुरू हुई।
उनकी टोपी उड़ा दी, साड़ी न जाने कहां गायब हुई।
तभी खद्दर की साड़ी पहने हुए एक युवती अंदर आई।
उसको देखकर अमरकांत की जैसे जान में जान आई।
बातों बातों में अमरकांत ने उसे अपना परिचय दिया।
युवती ने भी फ़ौरन अमरकांत को पहचान ही लिया।
अमरकांत ने युवती से भी उसका परिचय पूछ लिया।
युवती कोई और नहीं सुखदा थी, जिससे ब्याह किया।
अमरकांत ने फ़ौरन उस विदेशी साड़ी को जला डाला।
फिर प्रायश्चित करके ही वापस आने का वचन दे डाला।
अगले दिन अमरकांत स्वयंसेवकों की क़तार में खड़े थे।
खद्दर का कुर्ता धोती पहने, हाथों में झंडा लिए अड़े थे।
पुलिस ने आकर गिरफ़्तार करके लॉरी में उन्हें बैठाया।
लॉरी चलने वाली थी, सुखदा का साया सामने आया।
सुखदा के हाथों में पुष्पमाला और आँखों में आँसू थे।
वे दुख के नहीं, आँखों में गर्व और स्नेह भरे आँसू थे।
सुखदा ने पुष्पमाला अमरकांत के गले में डाल दी थी।
उस दिन होली थी और पुष्पमाला होली का उपहार थी।