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Madhu Gupta "अपराजिता"

Classics Fantasy

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Madhu Gupta "अपराजिता"

Classics Fantasy

समुंदर के किनारे

समुंदर के किनारे

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नजर जहां तक दौड़ आती हूं बस नजरों में भरा जाता है वो यह समंदर है, 

अपने अंदर ना जाने कितने अनकहे राज़ छुपाए बैठा है वो, 

हद है ना इसकी कोई भी पर हद में रहना सिखाता है सबको, 

 है नाम समुंदर मेरा नहीं सिमट कर रहना आता है मुझको...!! 


सदियों से लोगों का मुझसे स्थापित रहा संबंध पुराना है, 

घोड़ों से होकर लैस लोग मेरी सहर पर निकलते, 

बैठ किनारे तट पर मेरे क्या क्या सैर सापाट करते, 

चांद पूर्णिमा का देख मन को अपने हर्षित करते....!! 


दूरी तय करते हैं लोग यहाँ बैठ, जहाज पर एक देश से दूजे की, 

सफर बड़ा सुहाना होता, जाने कितने लोगों का आना जाना होता, 

रहता सफर लंबा इतना, लग जाते कई महीने उनको, 

रिश्तें नये स्थापित होते, मिलते एक दूजे से जब लोग यहां...!! 


मेरी खासियत इक है ऐसी, मैं लोगों से कुछ नहीं लेता, 

छुपे हुए हैं मेरे अंदर ना जाने अनगिनत राज़ कुछ ऐसे कितने, 

तलाश हमेशा चलती रहती यहां पर, लोगों की मुझ पर हरदम, 

नवरत्न मुझसे ही निकले मुझ में भरा खजाना अपार....!! 


कभी कभी मैं रहता हूं खमोश तो कभी लहरें मेरे अंदर से उठती, 

 कौन है ऐसा जो मेरे दर्द को समझे, लेकर दर्द सब अपना आ जाते, 

 जो मैं खो दूँ होश कभी अपना, चारों तरफ तबाही मचाता, 

रौद्र रूप धारण कर लेता, फिर संभाले से भी नहीं संभलता...!


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