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Kusum Joshi

Classics

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एक कथा: माँ सीता (सिया-धरालिंगन)

एक कथा: माँ सीता (सिया-धरालिंगन)

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वाल्मीकि संग सिया पुनः ,

राम समक्ष आ खड़ी हुई,

राम सिया के लिए कठिन,

अविस्मरणीय बड़ी वो घड़ी हुई,


दोनों के नयनों से केवल,

अश्रुधार प्रेम बन छलक रहे थे,

पर मर्यादा की सीमा में,

दोनों ही कर्तव्य पालन कर रहे थे,


पर जान प्रजा की इच्छा उस दिन,

सीता ने धरती माँ का आह्वाहन किया,

छोड़ जगत के मोह सभी,

बस रक्षित अपना मान किया,


यदि मैं पावन हूँ तन से मन से,

और राम मेरे आराध्य सदा,

तो मुझे इसी क्षण दिग् धरा,

स्थान गोद में दे दो माँ,


यह दुनिया हर पल और हर क्षण,

नारी को अपमानित करती है,

केवल उसके ही सम्मुख सदा,

अग्निपरीक्षा रखती है,


रहना चाहती नहीं यहाँ अब,

यहाँ नारी का सम्मान नहीं,

बहुत हो चुका अब माता,

सह सकती अब वनवास नहीं,


लव कुश को सौंप राम को,

सीता माता का ध्यान लगाती थी,

प्रजा खड़ी अवाक् देखती,

कुछ भी समझ ना पाती थी,


धरती फट गयी महल की,

प्रजा त्राहिमाम चिल्लाने लगी,

ब्रह्माण्ड देखता रह गया,

सिया धरा में समाने लगी,


राम-प्रजा के अनुनय पर भी,

सीता ना ऊपर आयी थी,

इस अन्यायवादी समाज में सीता ने,

अपनी पवित्रता सिद्ध करवाई थी,


ऐसा चरित्र था उस नारी का,

जिसने नया सम्बल हमें प्रदान किया,

नारी की पावनता को,

एक नवीन अध्याय बना दिया,


इतिहास बनाया उसने ऐसा,

जिसे भूल नहीं जग सकता है,

राम तो मर्यादापुरोषत्तम हैं फिर भी,

सिया नाम को राम से पहले रखता है।



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