श्रृंगार रस
श्रृंगार रस
तुमसे मिलन साधना जैसे सुरों का सर्जन, मेरे अहसास लिपट जाते है तुम्हारी चाहत की परतों से...
सुनों निनाद मेरे भीतर उठते भावों का, मधुरप उठती है मेरी साँसों से नुपूर सी बजती तुम्हारी धड़कन से ताल मिलाती...
तुम खेलते हो मेरी ज़ुल्फ़ो से बहती खुशबू से जैसे गुनगुनाते हो कोई नग्मा,
आगोश की आग जल्लद है तुम्हारी पिघल रही हूँ कण-कण...
प्रेम को परिभाषित करती है तुम्हारी ऊँगली यूँ न घुमाओ पीठ पर,
गुदगुदी से उठती झंकार में नहाते विणा के तार से स्पंदन बज उठते है...
लघु से मेरे वजूद को अपनी गिरफ़्त में जकड़ लेती है जब तुम्हारी आँखों की कशिश,
विराट हो जाती हूँ गर्वित बन पाकर तुम्हारी मोहब्बत...
मेरी लकीरों से उठती है पियानो की लय देखो, नखशिख झूमती हूँ नैन मूँदे तुम्हारी पनाह में रहकर
हर अदा निखर उठती है मेरे तन की जब थाम लेते हो लता सी मुझे दो बाजुओं के महफ़ूज़ स्तंभ में...
झंकृत होता है नाम जब एक दूसरे के उर में तब मदहोशी का आलम उद्भव होता है,
कहाँ कुछ होता है अपने बस में
तुम आसमान सराबोर हो मैं प्यासी धरा सी, आह्वान पर मेरे अंधाधुंध बरसते हो...
तरन्नुम सी बारिश की बूँदें जैसे गिरती हो छम छमा छम हम बहते रहते है उस लयमान चाहत सभर लम्हों के संग...
टूटती नहीं सरगम की एक भी तान सर्जन होता है जब मेरे बादामी गालों पर नीला निशान तुम्हारी लबों की मोहर से
तब टूटती नहीं सरगम की एक भी तान.....
प्रीत की चरम तक पहुँच जाते है दो दिल
बन जाते है "आदम और इव"
ध्यान मग्न होकर सुनें जो कोई हमारे मिलन का जश्न मनाते
पूरे ब्रह्मांड से बहता है सुरीला संगीत।