श्रीमद्भागवत-८६ ;प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परमपद -लाभ
श्रीमद्भागवत-८६ ;प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परमपद -लाभ
विदुर जी से मैत्रेय जी ने कहा
दस लाख वर्ष जब बीत गए थे
प्रचेताओं को विवेक प्राप्त हुआ
भगवान के वाक्य तब याद आए थे।
भार्या को पुत्र के पास छोड़कर
तुरंत घर से निकल पड़े वो
जाजलि मुनि ने जहाँ सिद्धि प्राप्त की
समुन्द्र तट पर वहां पहुँच गए वो।
चित को परब्रह्म में लीन किया
प्राण और मन को वश में करके
इस अवस्था में उनको देखा
वहां पहुंचे हुए नारद जी ने।
नारद जी को आया देखकर
प्रचेताओं ने प्रणाम किया उन्हें
खड़े होकर पूजा की उनकी
नारद जी से वो ये लगे कहने।
देवर्षे आपका स्वागत है
बड़े भाग्य से दर्शन हुआ है
भूल गए थे, शंकर, विष्णु ने
जो हमें उपदेश दिया है।
गृहस्थी में थे आसक्त हो गए
उस अध्यात्मज्ञान को फिर से
हमारे ह्रदय को प्रकाशित कीजिये
ताकि निकलें संसार बंधन से।
मैत्रेय जी कहें कि प्रचेताओं के
पूछने पर नारद जी ने कहा
जन्म, कर्म वही सफल है
जिससे हरि का सेवन किया जाता।
सब कल्याणो की अवधि तो
आत्मा ही है वो हमारी
और हरि ही प्रिय आत्मा हैं
इस जग में, सम्पूर्ण प्राणियों की।
हरि की पूजा सब की पूजा है
भगवान से सब उत्पन्न होता है
और उसी में लीन हो ये सब
ये चक्र चलता रहता है।
अपने से अभिन्न मानो हरि को
उनको ही तुम भजते जाओ
वो बड़े भक्त वत्सल हैं
उनकी कृपा अवश्य तुम पाओ।
जीवों पर दया करने से
वश में कर ले जो इन्द्रीओं को
जो मिल जाये उसी में संतुष्ट रहे
इन सब पर शीघ्र प्रसन्न होते वो।
मैत्रेय जी कहें कि हे विदुर जी
उपदेश देकर प्रचेताओं को
भगवत सम्बन्धी बातें सुनाकर
नारद जी चले गए ब्रह्मलोक को।
यह सुनकर सब प्रचेताओं ने
चिंतन करके हरि चरणों का
भगवान में वो सब रम गए थे
अंत में भगवतधाम प्राप्त किया।
शुकदेव जी कहें, हे राजन
यहाँ तक का ये वर्णन जो
वो था उत्तानपाद के वंश का
स्वयम्भुव मनु का था पुत्र वो।
अब में तुम्हें वर्णन सुनाऊँ
दूसरे पुत्र प्रियव्रत का
नारद से आत्मज्ञान पाकर भी
जिसने राजयभोग किया था।
अंत में सम्पूर्ण पृथ्वी को
बांटकर अपने पुत्रों में
चित को श्री हरि में लगाकर
परमधाम को वो चले गए।
राजन, इधर मैत्रेय जी से
विदुर जी पवित्र कथा सुनकर ये
आँखों में थे उनके आंसू
प्रेम मगन वो हो गए थे।
सर रखा मैत्रेय जी के चरणों में
बोले आप बड़े करुणामय हैं
अज्ञानान्धकार दूर किया मेरा
आप को मेरा नमस्कार है।
शुकदेव जी कहें, हे राजन
मैत्रेय जी से आज्ञा लेकर फिर
शांत चित हो मिलने चल दिए
बन्धुजनो से, वो हस्तिनापुर।
