तजुर्बा
तजुर्बा
दर-दर भटका एक मुसाफिर
ढूढ़ने को तजुर्बे का छल्ला,
कभी गया चौड़े मैदान की ओर,
कभी दूरबीन से संकरी गलियां खंगाली,
लेकिन तजुर्बा ना मिला उसे,
किसी चौक या कहीं दुकान में,
निराश होकर लौटने लगा घर की ओर,
देखा बहुत कुछ बदल गया था उसके चारों ओर,
दुनियादारी के उबड़ खाबड़ रास्तों पर,
अब पैर जरा कम ही मुड़ रहे थे,
बेईमान की बेईमानी उनकी आँखों में,
पढ़ने की अब क्षमता थी उसमें,
दाल में छौंक और जीवन में जोश,
अब पहले से बेहतर लग रहा था,
समझ गया अब मुसाफिर,
तजुर्बा ढूँढा नहीं जाता किसी बाजार में
तजुर्बा तो आ जाता है
समय के साथ कर्म करते करते खुद-ब-खुद।।
