बचपन
बचपन
सफ़ेद काग़ज़ सा ही तो होता है बचपन,
निष्कपट और हर जगह अपनापन
जिसमें नित नये रंग हम भरते हैं।
आड़ी टेडी रेखायें खींचकर नित नये शब्द हम गढते हैं।
ना कुछ पाने की आशा होती ना कुछ खोने का होता डर ,
हर क्षण बनाते सपनों के नये नये घर।
सींच कर अपने बचपन को जब हम बड़े होते हैं।
क्यों हर इच्छा ज़िम्मेदारी को बेमन से ढोते हैं।
कोमल बचपन नहीं समझता जीवन को तब उलझन है।
जीवन की इस आपाधापी में फिर कैसे ढूँढते खुद का ही बचपन है।
