धुँध
धुँध
सब कुछ धुँधला है यहाँ
फैली हर ओर धुंध की चादर है
स्याह सफ़ेद या कुछ मटमैला सा है नज़ारा
दूर दूर तक नहीं दिखता अंत, न कोई किनारा
सर्द सुबह, डूबा धुंध में पूरा शहर है
कोई साथी नहीं, ना ही कोई पथिक दिखता है यहाँ
स्वयं का प्रतिबिंब भी कर रहा संघर्ष यहाँ ।
बस दिखता एकाकी वीरान सा पथ है।
न कोई उमंग न ख़ुशी बस हर तरफ़ सन्नाटा रहा पसर है।
हटेगा धुंध जब होगा उजियारा
सुनेंगी हर ओर ध्वनि, चहकेंगे स्वर।
जब पड़ेगी सूर्य की स्वर्णिम किरणें यहाँ
होगा उजाला मिलेंगे अनको पथ यहाँ