अभिमान
अभिमान
अकड़ कर मत खड़ा हो,
ना कर घमण्ड इन उत्कर्षों का।
किस बात का तुझको मिथ्या ही अभिमान है।
क्यूं तुझे लगता है बस जग में एक तू ही महान है।
पाल कैसे है रखा तूने इतना बड़ा ये गुमान है।
क्यूं तू समझता है कि सब केवल माटी के समान है।
पानी में पत्थर जिस तरह अपने वजन से डूब ही जाता है।
अंहकार भी टिकता नहीं है ज़्यादा आखिर टूट ही जाता है।
अकड़ कर मत खड़ा हो,
ना कर घमण्ड इन ऊँचाईयों का।
क्यूं नहीं समझता तू, हर व्यक्ति की होती इक पहचान है।
उसमें भी होता कहीं स्वाभिमान है।
क्यूं समझता है तू औरों को नीचा दिखाना शान है।
चमक रहा है सूरज की भाँति बस ये ही तेरा अभिमान है।
मत भूल चाँदनी इंदु से ही है जो शीतलता भी देती है।
डर, वक्त की धारा से जो प्रति क्षण बदलती ही रहती है।
अकड़ कर मत खड़ा हो इस तरह,
ना कर घमण्ड इन बुलंदियों का।
