औरतें कितनी अजीब होतीं हैं
औरतें कितनी अजीब होतीं हैं
हम औरतें भी कितनी अजीब होती हैं,
हम औरतें भी कितनी अजीब होती हैं,
जो 365 दिन में से एक दिन पाकर ख़ास, ख़ुश हो जाती हैं
हम पत्थरों के मकान को घर बनाती हैं,
प्रेम की सौंधी ख़ुशबू से घर को लेपती हैं ।
फिर भी इसी घर में अपनी कोई पहचान नहीं पाती हैं
हम औरतें भी कितनी अजीब होती हैं,
जो 365 दिन में से एक दिन पाकर ख़ास ख़ुश हो जाती है।
बिना रीढ़ की हड्डी जैसे, कठपुतली सी बनकर ,कभी रसोई ,
कमरे ,बग़ीचे तो कभी त्यौहारों और प्रयोजन सब की शोभा बढ़ाती हैं
लेकिन इन सब में स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं
ढूँढ पाती हैं ।
हम औरतें भी कितनी अजीब होती है
जो 365 दिन में से एक दिन पाकर खास ख़ुश हो जाती हैं ।
सुबह से शाम और शाम से रात तक कई बार टूटती हैं,
बिखरती हैं ,टूट कर फिर से जुड़ती है
टूटते रिश्तों के धागों में नयी नयी गांठे लगाकर,
सबको ख़ुश रखने को हर दिन फिर से नई शुरुआत में लग जाती है
हम औरतें भी कितनी अजीब होती हैं
हँसते हँसते रोने लगती है तो कभी रोते रोते हँसने का ढोंग करती है
कभी-कभी तो हम अपने ही आंसू को पलकों में छुपा जाती हैं ।
हम औरतें भी कितनी अजीब होती है।
जो 365 दिन में से इक दिन पाकर खास ख़ुश हो जातीं हैं ।
घंटों दिन महीने साल गुज़ार देती हैं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में
कभी चेहरे पर शिकन तक नहीं लातीं है
पर सब को रास्ता दिखाते दिखाते ,हम स्वयं को ही भूल जाती है
हम औरतें कितनी अजीब होती है
जो 365 दिन में से इक दिन पाकर खास ख़ुश हो जातीं हैं ।
कर सकती हैं सब कुछ जो हम चाहे
बढ़ा कर क़दम से क़दम इन सब के साथ भी चल सकती है
लेकिन फिर भी स्वयं को अकेला, असहाय, अबला हम ही बताती हैं ।
हम औरतें कितनी अजीब होती है
जो 365 दिन में से इक दिन पाकर खास ख़ुश हो जातीं हैं ।
नहीं आता सलिका ख़ुद को अलग दिखाने का ,
नहीं आता ख़याल अपने लिए कुछ पाने का,
हम तो सपनों में भी बच्चे, पति, परिवार और कल क्या करना है ,बस यही देख पाती है
हम औरतें भी कितनी अजीब होती हैं
जो 365 दिन में से इक दिन पाकर खास ,ख़ुश हो जातीं हैं।