नींव की ईंट
नींव की ईंट
मैं नीवं की ईंट हूँ,
ना ही मेरा कोई अस्तित्व है।
ना मेरे कोई सपने हैं
हॉं ,पर जो चमचमाते कंगूरे है,वो सब मेरे ही अपने हैं।
मैं रहती हूँ खुद को रंग रोगन से पोतकर
सबकी कमियों को परत दर परत ओढकर।
मज़बूत बनाती हूं,सदा खुद को कॉंट छॉंट कर
पता है ना,सबकी हस्ती है मुझ पर ही निर्भर ।
मैं ही तो संबल हूँ
मेरे अचेतन अंतर में ही तो छिपे हैं,मेरे अपने
मुझे तो हक भी नहीं टूट जाने का।
जानती हूँ गर जो टूट गई तो बिखर जायेगें, सब ये मेरे अपने।
कँगूरा बनने को तैयार है सब यहाँ
मेरा समर्पण कोई नहीं देखता।
जो दिखता है वही बिकता है यहाँ
इसीलिए तो वाह वाही बस कंगूरा ही बटोरता है।
