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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२४७; जरासंध से युद्ध और द्वारिकापुरी का निर्माण

श्रीमद्भागवत -२४७; जरासंध से युद्ध और द्वारिकापुरी का निर्माण

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

दो रानियाँ थीं कंस की

मगधराज जरासन्ध पिता थे उनके

नाम था अस्ति और प्राप्ति।


कंस की मृत्यु के बाद वे दोनों

पिता के पास चली गयीं

जरासन्ध को शोक हुआ सुनकर

कि वे दोनों विधवा हो गयीं।


क्रोध से तिलमिला उठा

कारण सुनकर विधवा होने का

मन में निश्चय किया कि पृथ्वी पर

कोई भी यदुवंशी नही रहने दूँगा।


तेरह अक्षोहनी सेना लेकर

मथुरा को घेर लिया चारों और से

स्वजन, पुरवासी भयभीत हो रहे

भगवान कृष्ण ने जब देखा ये।


उन्होंने सोचा कि जरासन्ध के आधीन

जो नरपति , और और सेना उनकी

वे सब तो पृथ्वी का भार हैं

लेकर वो आ रहा मेरी और ही।


इसका नाश करूँगा मैं परंतु

जरासंध को अभी नहीं मारूँगा

क्योंकि वो जीवित रहेगा तो

फिर से सेना इकट्ठी करेगा।


मेरे अवतार का यही प्रयोजन कि

पृथ्वी का भार करूँ मैं हल्का

दुष्ट दुर्जनों का संहार करूँ

साधु सज्जनों की करूँ रक्षा।


ऐसा विचार कर ही रहे कृष्ण

कि सूर्य के समान चमकते

दो रथ आकाश से आए और

उनके पास वो आ पहुँचे थे।


युद्ध की सामग्रियों से सुसज्जित

दो सारथी उन्हें हांक रहे थे

भगवान के दिव्य आयुध भी

अपने आप वहाँ स्थापित हो गए।


दोनों भाइयों ने कवच धारण किए

रथ पर सवार हो मथुरा से निकले

छोटी सी सेना भी साथ चल रही

दारूक कृष्ण का रथ हांक रहे।


पाँचजन्य शंख बजाया कृष्ण ने

कृष्ण को देख जरासन्ध ये बोला

‘ कृष्ण, तू अभी निरा बच्चा है

तेरे साथ मैं लड़ नहीं सकता।'


मेरे सामने से तू चला जा ‘

और फिर बलराम से कहा

‘ तू आ जा, आकर मुझसे लड़

यदि तू मुझसे लड़ना चाहता।


श्री कृष्ण कहें ‘ हे मगधराज

डींगें ना हाकें, शूरवीर होते जो

युद्ध के मैदान में बस

बल पोरुष हैं दिखलाते वो।'


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

श्री कृष्ण को तब जरासन्ध ने

घेर लिया चारों और से

रथ, ध्वजा भी ना दिख रहे उनके।


मथुरा की स्त्रियाँ अपने छज्जों पर

युद्ध का कौतुक देख रहीं

गरुड़ चिन्ह से चिन्हित ध्वजा

जो कृष्ण के रथ पर थी।


और तालचिन्ह से चिन्हित

ध्वजा जो रथ पर थी बलराम के

जब उनको ये ना दिखा तो

मूर्छित हो गयीं वे शोक से।


अपनी सेना को पीड़ित देखकर

षड़ानगधनुष निकाला कृष्ण ने

टंकार किया और झुंड के झुंड

वाण छोड़ने लगे वो उससे।


संहार करने लगे उससे कृष्ण

चतुरंगी सेना का जरासंध की

बलराम जी ने अपने मूसल से

शत्रुओं के खून की नदियाँ बहा दीं।


सारी सेना जब नष्ट हो गयी

पकड़ा बलराम ने जरासन्ध को

कृष्ण ने तब उनसे कहा

‘ छोड़ दो, इसे मत मारो।


जरासंध को बड़ी लज्जा हुई

कि कृष्ण, बलराम ने छोड़ दिया उसे

उसको बड़ी ग्लानि हुई और

तपस्या करने का निश्चय किया उसने।


परन्तु सभी नरपतियों ने उसे

समझा दिया रास्ते में ही

कि पराजित नहीं कर सकते

तुम्हें ये जो हैं यदुवंशी।


प्रारब्ध वश ये देखना पड़ा आपको

ये बात समझा दी उसको

कहा तपस्या नही करनी चाहिए

तब अपने देश को चला गया वो।


जरासन्ध की पराजय से

मथुरावासी भयरहित हो गए

विजय पताकाओं से सजा दिया

जब कृष्ण आए नगर में।


परीक्षित, सत्रह बार इस तरह

तेइस अक्षौहिणी सेना लेकर

जरासन्ध ने युद्ध किया और

चढ़ाई की थी मथुरा नगरी पर।


कृष्ण द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों ने

हर बार हरा दिया उनको

सेना नष्ट हर बार की उसकी पर

अठरविं बार जब फिर आया वो।


तो नारद जी का भेजा हुआ

वीर कालयवान दिखाई पड़ा वहाँ

युद्ध में कालयवान के समान

वीर असल में कोई भी ना था।


जब उसने सुना कि यदुवंशी भी

बलवान हैं उसके जैसे ही

तीन करोड़ मलेछों को लेकर

मथुरा की नगरी घेर ली।


भगवान ने सोचा कि इस समय

जरासन्ध और कालयवान ये

दो विपत्तियाँ मंडरा रही हैं

यदुवंशियों पर इसलिए।


उन्होंने ये निश्चय किया कि आज

ऐसा दुर्ग क़िला बनाएँगे

बहुत कठिन होगा प्रवेश

किसी भी मनुष्य का उसमें।


अपने स्वजन सम्बन्धियों को

पहुँचाकर उस क़िले में

कालयवान और जरासन्ध का

उसके बाद फिर वध करेंगे।


सलाह करके बलराम जी से फिर

समुंदर के भीतर श्री कृष्ण ने

दुर्गम नगर एक बसाया

सभी वस्तुएँ अदभुत थीं जिसमें।


अड़तालीस कोस लम्बाई उसकी

विशावकर्मा ने विज्ञान से उसमें

सुंदर उद्यान, उपवन बनाए

ऊँचे ऊँचे शिखर सोने के।


महल भी सोने के बने थे

रत्नों से सुशोभित शिखर थे उनके

और लोग चारों वर्णों के

द्वारका नगरी में निवास करें।


सबसे बीच में महल थे

उग्रसेन, वासुदेव जी के

और कृष्ण बलराम के भी

महल वहाँ उनके साथ में।


देवराज इंद्र ने उस समय

भेजा था श्री कृष्ण को

पारिजात वृक्ष और सुधर्मा सभा

एक दिव्य सभा थी ये तो।


जिसमें बैठे हुए मनुष्य को

छू भी नही सकती है

भूख और प्यास आदि

मृत्यु लोक के धर्म जो हैं।


वरुण जी ने तब श्री कृष्ण को

बहुत से श्वेत घोड़े दिए थे

एक कान श्याम वर्ण उनका

चाल तेज समान थी मन के।


धनपति कुबेर ने उनको

सारी निधियाँ भेज दीं अपनी

अपनी अपनी विभूतियाँ भेज दीं

सभी लोकपालों ने भी।


लोकपालों ने सभी सिद्धियाँ

समर्पित कर दीं श्री कृष्ण को

योगमाया से पहुँचा दिया वहाँ

कृष्ण ने स्वजन, सम्बन्धियों को।


शेष जन की रक्षा के लिए

बलराम जी मथुरा पूरी में रहे

बिना शस्त्र नगर से निकले

कमलों की माला पहन गले में।


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