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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१७५; महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

श्रीमद्भागवत -१७५; महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

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श्रीमद्भागवत -१७५; महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश


शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

राजा शर्याति, जो मनुपुत्र थे

एक कमललोचना कन्या उनकी

वेदों के बड़े विद्वान थे वे।


अंगिरा गोत्र के ऋषिओं के यज्ञ में

दुसरे दिन का कर्म बतलाया उन्होंने

कन्या का उनकी नाम सुकन्या

राजा के साथ वो गयी इक दिन वन में।


वन में घुमते घुमते ही वो

च्यवन ऋषि के आश्रम जा पहुंचे

सुकन्या अपनी सखिओं के संग

देख रही वृक्षों का सौंदर्य।


जुगनू की तरह दो ज्योतियां दिख रहीं

एक जगह बांबी के छेद से

एक कांटे से बेंध दिया ज्योतियों को

बाल चपलता में सुकन्या ने।


उनमें से बहुत सा खून बह चला

और सैनिकों का राजा के 

उसी समय मल मूत्र रुक गया

आश्चर्य हुआ राजा को देख ये।


सैनिकों से पूछा उन्होंने

महर्षि च्यवन के प्रति कहीं कोई

अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया

सुनकर ये, सुकन्या बहुत डर गयी।


अपने पिता से डरते डरते कहा

मैंने अपराध अवश्य किया है

अनजाने में मैंने दो ज्योतियों को

एक कांटे से छेद दिया है।


कन्या की बात सुनकर ये

राजा शर्याति घबरा से गए

बांबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को

प्रसन्न किया स्तुति से उन्होंने।


अभिप्राय जान च्यवन मुनि का

समर्पित कर दिया उन्होंने

अपनी कन्या सुकन्या को उनको

और राजधानी अपने चले गए।


परमक्रोधी च्यवन मुनि को

पति के रूप में प्राप्त करके

उनको प्रसन्न करने लगी सुकन्या 

सेवा करके बड़ी सावधानी से।


मनोवृति को जानकर उनकी

वर्ताव करतीं उनके अनुसार ही

कुछ समय बीत जाने पर

दोनों अश्विनीकुमार आये वहीँ।


सत्कार किया मुनि ने उनका

और कहा अश्विनीकुमारों से

आप दोनों समर्थ हैं, इसलिए

युवा अवस्था प्रदान कीजिये मुझे।


जनता हूँ मैं कि आप लोग

अधिकारी नहीं हैं सोमपान के

सोमरस का भाग दूंगा मैं

फिर भी आप दोनों को यज्ञ में।


वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने

अभिनंदन कर महर्षि च्यवन का

कहा, ठीक है?और कहा कि

कुंड ये सिद्धों का बनाया हुआ।


आप इसमें स्नान करें जब

युवा अवस्था प्राप्त करेंगे

हे परीक्षित, च्यवन मुनि के शरीर को

घेर रखा था बुढ़ापे ने।


सभी और नसें दिख रहीं उनकी

झुर्रियां पड़ जाने के कारण वे

और बाल भी पक जाने से

देखने में भद्दे लगते थे।


अश्विनीकुमारों ने प्रवेश किया

उन्हें साथ लेकर उस कुंड में

उसी समय उस कुंड से

तीन पुरुष थे बाहर निकले।


वे तीनों ही कमलों की माला

सुंदर वस्त्र और कुंडल पहने

स्त्री को प्रिय लगने वाले

बहुत सुंदर, लगें तीनों एक से।


सुकन्या ने जब देखा कि

एक ही आकृति के तीनों ये

सूर्य के समान तेजस्वी तीनों

पहचान न सकीं पति को अपने।


अश्विनीकुमारों की शरण ली उसने

संतुष्ट हुए वे पातिव्रत्य से उसके

बताया ये ही च्यवन मुनि हैं

और स्वर्ग चले, मुनि से आज्ञा ले।


कुछ समय बाद राजा शर्याति

यज्ञ करने की इच्छा से

च्यवन मुनि के आश्रम पर आये

और देखा ये वहां उन्होंने।


देखा एक तेजस्वी पुरुष वहां

पास में बेटी सुकन्या के

सुकन्या ने जब पिता को प्रणाम किया

आशीर्वाद नहीं दिया उन्होंने।


अप्रसन्नता में बोले,''हे दुष्टे

यह तूने क्या कर दिया

कहीं तूने परम वंदनीय

च्यवन मुनि को धोखा तो नहीं दिया।


ऊँचे कुल में जन्म हुआ तुम्हारा

तुझे उलटी बुद्धि कैसे प्राप्त हुई

कुल को कलंक लगाने वाला है

तेरा ये अनुचित व्यवहार ही।


निर्लज्ज होकर जार पुरुष की

सेवा तुम कर रही हो जैसे

पति, पिता दोनों के वंश को

ले जा रही हो घोर नर्क में।


राजा शर्याति ने जब इस प्रकार कहा

मुस्कुराकर कहा सुकन्या ने

पिता जी, आपके जमाता

भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं ये।


सब वृतांत सुनाया पिता को

सुनकर राजा शर्याति विस्मित हुए

पुत्री को गले से लगा लिया

कहा मुनि को यज्ञ के बारे में।


शर्याति के यज्ञ में मुनि ने 

अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया

इंद्र से ये सहा न गया

चिढ़कर उन्होंने वज्र उठाया।


शर्याति को मारने दौड़े जब

तब च्यवन जी ने अपने प्रभाव से

स्तम्भित कर दिया था वहीँ

इंद्र के हाथों को, साथ वज्र के।


देवताओं ने तब स्वीकार कर लिया

भाग देने के लिए सोम का

अश्विनीकुमारों को वैद्य होने के कारण

पहले बहिष्कार किया था उनका।


हे परीक्षित, तीन पुत्र शर्याति के

उतानबर्हि, आनर्त, भूरिषेण नाम के

आनर्त के पुत्र रेवत हुए जो

उन्होंने नगरी बसाई समुन्द्र में।


कुशस्थली नाम उस नगरी का

राज्य करते उसी में रहकर वे

उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे

कुकुधमी उनमें सबसे बड़े थे।


एक बार कन्या रेवती को लेकर

कुकुधमी ब्रह्मा जी के पास गए

उदेश्य था कि पूछें उनसे

श्रेष्ठ वर अपनी कन्या के लिए।


उस समय बेरोकटोक था रास्ता

ब्रह्मलोक का, ऐसे लोगों के लिए

ब्रह्मलोक में उत्सव था चल रहा

धूम मची गाने बजाने से।


अवसर न मिलने के कारण

बातचीत का उन्हें ब्रह्मा से

कुछ क्षण वहीं ठहर गए

पिता पुत्री तब इंतजार में।


उत्सव के ख़त्म होने पर

ब्रह्मा जी को अभिप्राय बताया

बात सुन ब्रह्मा जी ने हंसकर

ये सब था उनसे कहा।


महाराज, तुमने अपने मन में

सोच रखा जिनके विषय में

पुत्र पौत्र भी न रहे उनके

काल के गाल में सब चले गए।


सताइस चतुर्युगी का समय

बीत चुका है इसी बीच में

इसलिए जो मैं कहता हूँ

सुनो तुम उसको ध्यान से।


नारायण के अंशावतार बलदेव जी

विद्यामान पृथ्वीपर इस समय

महाराज उन्हीं नररत्न को

कन्यारत्न समर्पित करो यह।


ब्रह्मा जी का आदेश प्राप्त कर

राजा कुकुधमी ने की वंदना उनकी

पहुंचे नगर तो उनके वंशज छोड़ उसे 

निवास कर रहे यहाँ वहां सभी।


अपनी पुत्री बलराम जी को सौंप दी

और स्वयं वो चले गए थे

नर नारायण के आश्रम को 

वहां तपस्या करने के लिए।


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