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Babu Dhakar

Classics Inspirational

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Babu Dhakar

Classics Inspirational

सहनशीलता

सहनशीलता

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आज अनंत अंतिम, आज सच संचित कर

मन के दरवाजे पर दस्तक हुई है तो महसूस कर

ये समां, यह दौर मौत का कैसा मंजर लाया है

कुछ किया है गलत तो अब सहन कर।


महज ये कैसा सपना ऐसा दौर भी ना था कल्पना में

भ्रम था कि ये जीवन जीना कितना सरल है

ये कर्म का क्यारां जब सींचा मानव ने केवल तृष्णा से

अब सब प्यारों को प्यार से प्रणाम करके हे कृष्णा कहना है।


थोड़ी शरारतों में जीवन ढूंढते रहना था

कभी रूठते कभी हंसते रहना था

हमें सहन करनी है अब खामोशियां भी

क्योंकि आज हमें अपनों से दूर ही रहना हैं।


आज अंधेरे में एक दिया काफी नहीं होगा

अंधेरे में जला दिये कफ़नों से उजाला नहीं होगा

मातम है, मातम है अब क्या आत्म ज्ञान होगा

अब कुछ भी खत्म हो पर हमें जतन कर के सहना होगा।


एक रहम एक कर्म एक धर्म अब जरूरी हुआ

जो हम है वहीं दूसरें है इसका क्या आभास भी हूआ

एक बात साफ है कि यह एक से अनेक को हुआ

अनेकों एक एक से यह न जाने कितनों को हुआ।


ये दबे पांव नहीं आया है, कुछ आहट तो हुई थी

हम नींद में थे इसलिए आहत कर दिया

जब नींद खुली तो अधजगे रह गये थे

अब हमें अपनी आंखें अधिक खोलनी है।


जो हुआ सो हुआ जीवन ना बना धूुआं धूुआ

अब खोल के सजग हो रूह का रूआं रूआं

क्या तपिश होगी और ना जाने क्या साजिश होगी

अब सोच ले जो भी होगी ओ हमें बेझिक सहन होगी।


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