शिकायत
शिकायत
लगा दांव पर द्रुपद सुता को
तुम तो धर्मराज कहलाये!
बने रहे कभी पुरुषोतम
और सिया ने कष्ट उठाये!
त्याग यशोधरा का करके
योगी, ज्ञानी, बुद्ध हुए किन्तु
कभी अहिल्या, कभी जानकी
कभी द्रौपदी वह बनी रही
तिरस्कार, त्याग नहीं ये उनका
अपमान हुआ सिर्फ नारी देह का,
तुम देवराज ! तुम्ही धर्मराज !
राम तुम्ही, रावण भी तुम्ही!
तुम समाज के
ये समाज तुम्हारा, और
इस समाज के तुम ही अधिष्ठाता!
अपना तिलक आप सजा के
ऊंचे सिंहासन जा बिराजे!
भूले से भी याद नहीं क्यों ?
तुम भी इसी देह से जन्मे !
नियति नहीं फिर भी, लेकिन
होती रही ये देह तिरस्कृत,
अदेह शक्ति को पूज -पूज
किया अपमान नारी देह का
जो मान तुम्हारा बनाये रख कर
लुटाती रही अपनी देह सदा.
बलवान सदा तुम बने रहे!
और रही यह अबला देह ;
क्या यह भी ज्ञात नहीं तुमको
कि होता है हर रोज़ उजाला
आँचल रात्रि जब लेती समेट
इठलाता सागर का यौवन
नदियाँ लेती जब देह समेट;
न ये माता, न ये पत्नी बेटी,
न बहन तुम्हारी
हर युग हर काल में
रही सामने यह देह सदा,
दौड़ता लहू शिराओं में उसकी
और सांस भी चलती है
भावना जगती, सपने पलते
ठीक तुम्हारे भीतर जैसे
समझो न इसे सिर्फ इक देह !
रोष नहीं तुमसे,
न है विरोध कोई
पीछे चलने की चाहत
न आगे निकलने की होड़ है
गिला नहीं विधाता से भी
बस ...शिकायत है मुझे तुम से
भूले से ही सही, कभी तो
इंसान ही समझ लिया होता
देह से परे कभी तो जाकर
मन में झाँक लिया होता …
