शहरीकरण
शहरीकरण
मसरूफ़ वक़्त रहता है
या वो तमाम लोग
जो बेवज़ह बेवक़्त
अपनी दास्तान को इतिहास
बनाने में जुटे रहते हैं
क़िस्सागोई का क्या है
जितने मुँह उतनी बातें
सिर्फ निरी कोरी खोखली बातें
जो किसी की ज़बान पर
न लगाम लगा सकती है
न किसी कुन्द ज़ैह्न कम्युनिस्ट को
सड़क पर मोब लिंचिंग में
अपने आडंबरी आदर्शवाद की
बेदी पर भेंट चढ़ा देने को आतुर है
परियों की कहानी अब
कौन सुनना चाहता है
नानी-नाना की गोद
अब किसको प्यारी है
गांव कहाँ अब गांव रहे
गांववालों को भी अब
शहरीकरण की बीमारी है
खेत अब सूख रहे हैं
धरती अब उपजाऊपन खो रही है
कुँए तालाब अब बंजर है
यह बेमौसमी आपदा
किसान के ह्रदय पर खंज़र है
बेटियों का बलात्कार
दलितों का नृशंस हत्याकांड
किसानों की आत्मघाती कहानियां
कौन है आख़िर ?
इन सबका जिम्मेदार ?
क्यों सरकार मौन है ?
क्यों देश की जनता के सवाल
बिना ज़वाब के आने वाली
नस्लों की और मुँह ताक़ रहे हैं
यह कैसी भाषा है
जो किसी को समझ नहीं आती
फिर भी हम इसको बांच रहे हैं।