शहर
शहर
कुछ तो हो ऐसा जिस से,
शहर की कुछ फ़िज़ा बदले,
देखूँ जो शहर को तो,
आँखों को सुकून मिले।
जब भी मैं निकलूँ शहर में,
हर तरफ बस एक ही मंज़र देखूँ,
चेहरों पर शिकन देखूँ तो,
आँखों में नमीं देखूँ।
किसी रिक्शेवाले को अपनी,
तकदीर को खींचते देखूँ,
तो किसी इंसान को,
दूसरे इंसान के सामने
हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाते देखूँ।
मंदिर में पुजारी को देखूँ,
तो पगडंडियों पर,
भिखारी को देखूँ।
अपनी किस्मत को खोदते,
मजदूर को देखूँ,
तो कभी अपने भविष्य को,
अपने पल्लू मैं बाँधे,
ईंट उठाती मज़दूर माँ को देखूँ।
एक तरफ बड़ी-बड़ी इमारतें देखूँ,
तो दूसरी तरफ फूस की झोपड़ियाँ देखूँ,
बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते,
मेहनतकश मज़दूर को देखूँ।
फिर उसी मज़दूर को अपने,
माथे पर छत के लिए तड़पते देखूँ,
शहर में अलग-अलग प्रांतों से,
आए हुए इंसानों को देखूँ।
फिर भी मैं इनमें जात-पात का,
भेद-भाव कमाल देखूँ,
एक मज़हब को दूसरे मज़हब से,
लड़ते देखूँ तो एक जात को दूसरे,
जात को शोषित करते देखूँ।
शहर में गर ऐसा मंज़र देखूँ,
तो फिर क्यों ऐसा शहर देखूँ ?
शहर तो होता है जहाँ लोग,
अलग-अलग प्रान्त से आते हैं,
अपने सपने को पूरा करने,
अपने भविष्य को बनाने।
अपने लिए रोज़गार तलाशने,
जहाँ न कोई धर्म हो,
न जात-पात हो, न ऊँच-नीच हो,
बस इंसान हो जो अपने भविष्य को,
सँवारने के लिए आता हो।
फिर भी गर शहर में मैं,
मेहनतकश मज़दूरों का शोषण देखूँ,
मज़हब की लड़ाई देखूँ।
एक जात को दूसरे जात से,
हीनता करते देखूँ,
तो फिर मैं ऐसा शहर हीं क्यों देखूँ,
तो फिर मैं ऐसा शहर हीं क्यों देखूँ।
