मज़हब की रसोई
मज़हब की रसोई
लाल रंगी लाशों की चटाई पर
बैठ सरल भाव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
खौलते खून की कढ़ाई
पकड़ता फटी सलवारों से,
पाक विचारों की सब्ज़ियाँ
काटा करता तलवारों से,
बस्तियाँ पीस आटा कर दी
उसे गूँथ रहा गंदे पाँव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
सबको पृथक चिन्ह परोसे
बात निराली कर डाली,
एक मिलाप की दाल पकाते
दाल ही काली कर डाली,
भूख ना मिटी तेरी तूने
यारी कर ली चुनाव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
अमन चैन के चावल का
तूने कुकर था चढ़ा दिया,
लेकिन गलती तू कर बैठा
अंधविश्वास का पानी बढ़ा दिया,
अंधापन कुछ शहर से लिया
कुछ ले आया गाँव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
उसी वक्त बिजली गुल हो गयी
उतर टाॅर्च का सेल गया,
उड़ मिर्ची आँखों में चल दी
मंदिर-मस्जिद का रायता फैल गया,
नहीं संभलना हैं वो अब
तेरे छोटे-मोटे दाव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
बंदिशो की अच्छी मिठाई भी थी
कट्टरता का अचार भी था,
गौ-माता पर जंग थी कहीं
सेवईयों पर प्यार भी था,
हाथ सेंकता बैठा है कब्र पर
तू चिता के अलाव से,
मज़हब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
रक्त रवि रात एक है सबको
हम आपस में क्यों बँटते हैं,
मजहब तेरी भूख मिटाने
ये इंसान क्यों कटते हैं,
मैं परेशान हो गया हूँ
तुझसे झूठे लगाव से,
मजहब तू खा गया
इंसानियत बड़े चाव से।
