पिताजी
पिताजी
जीने का मकसद, लड़ने का साहस, आशा की अभिलाषा हैं वो
सुलभ प्राप्य क्षणिक खुशी नहीं, तपने की परिभाषा हैं वो
घर का सुदृढ़ स्तम्भ, घर की अस्मिता की बातें करता हूँ
किसी आम व्यक्ति का ज़िक्र नहीं, अपने पिता की बातें करता हूँ
बचपन की अल्हड़ दौर में जिम्मेदारियां ली काँधे जिसने
पाई पाई सँजो- सँजोकर, परिवार की गठरी बाँधी जिसने
एहसास में उलझे दो लफ्ज़ नही, कविता की बातें करता हूँ
किसी आम व्यक्ति का ज़िक्र नहीं, अपने पिता की बातें करता हूँ
अनुभव का अथाह समंदर, मनोबल की अडिग दीवार हैं वो
हर चाह जहाँ पूरी होती है, खुशियों का संसार हैं वो
मनोभाव शब्दों में जो न कह पाए, अपने रचयिता की बातें करता हूँ
किसी आम व्यक्ति का ज़िक्र नहीं, अपने पिता की बातें करता हूँ
छोड़ अधूरे सपने अपने, हमारे सपनों की ली उत्तरदायी जिसने
कितने निर्बल झीने रिश्तों की कर दी है तुरपायी जिसने
किसी शायर के मनोहर शेर नहीं, गीता की बातें करता हूँ
किसी आम व्यक्ति का ज़िक्र नहीं, अपने पिता की बातें करता हूँ।
