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Ranjana Mathur

Drama Tragedy

3  

Ranjana Mathur

Drama Tragedy

कैसे खेलूँ होली

कैसे खेलूँ होली

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फागुन आया लेकर सखी

फिर से होली का त्योहार।

कैसे खेलूं होली जब बिछुड़ा

है मेरे तन-मन का शृंगार।।


सरहद पर वे खेल गये

दुश्मन संग खूं की होली।

सखी वो लौट घर न आए

बिखेरी मेरे मन की रंगोली।


क्या कहूँ मैं कैसे कह दूँ

मिटा मेरा जीवन संसार।

कैसे खेलूं होली जब बिछुड़ा

है मेरे तन-मन का शृंगार।।


कैसे देखूँ मैं इन रंगों को

सब लगते मुझे तो धूल से।

गुलाल बारूदों जैसी लागे

टेसू भी चुभते हैं शूल से।


होली जलती लगे चिता सी

सब रंग मुझे लगें हैं अंगार।

कैसे खेलूं होली जब बिछुड़ा

है मेरे तन-मन का शृंगार।।


सखी बेरंग हुआ है जीवन

मिटा मेरे मन काअस्तित्व।

चल रहीं ये विवश-सी श्वासें

निभा रही उनके दायित्व।


कुछ भी नहीं रखा जीवन में

मन मेरा गया सखी हार।

कैसे खेलूं होली जब बिछुड़ा

है मेरे तन-मन का शृंगार।


सुन री सखी ठाना मैंने है

बिटिया को न रुलाऊंगी।

माँ के संग पापा भी बनकर

यह त्योहार मैं मनाऊंगी।


एक पिता बन उसका मैं

दूंगी उसे खुशी का संसार।

कैसे खेलूं होली जब बिछुड़ा

है मेरे तन-मन का शृंगार।।


बूढ़े माता और पिता के

अश्रुओं को रोकूंगी मैं।

बहू से बेटा बन जाऊँगी

रंग न उनके पोंछूंगी मैं।


बहू तो हूँ अब बेटा बन

जीवित रखूंगी उनका प्यार।

खेलूंगी होली उस खातिर

था जो मेरे मन का शृंगार।


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