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Kusum Joshi

Abstract Drama

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Kusum Joshi

Abstract Drama

बेटी है -परायी है

बेटी है -परायी है

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जिस घर में मैं बड़ी हुई,

चलना सीखा पैरों पर खड़ी हुई,

जिस घर की चार दीवारों में 

हैं बचपन की यादें दबी हुई,


जिस घर के आंगन में मेरी,

किलकारी गूंजा करती थी,

और घर के हर एक कोने में,

मैं भागा घूमा करती थी,


जिस घर ने हर एक याद में,

मेरी तस्वीर बनाई है,

फिर कैसे दुनिया कहती है,

ये बेटी है परायी है।


जिस घर में मैंने देखे सपने,

मतलब सपनों का जाना,

जहां पे सीखी दुनियादारी,

दुनिया को अपना माना,


जिस घर के हर एक कमरे को,

मैं रोज़ सजाया करती थी,

जिस घर में अपने जीवन का,

महल बनाया करती थी,


जिस घर में मैंने यादों का,

एक अद्भुत जहां बसाया है,

फिर कैसे दुनिया कहती है,

ये घर मेरा नहीं पराया है।


जिस घर में मैंने खेली होली,

दीप हजार जलाए हैं,

जहां पे मैंने रिश्तों के ,

कुछ अद्भुत कमल खिलाए हैं,


जहां पे मुझको माता पिता ,

और भाई बहन का प्यार मिला,

और मेरी राखी के धागों को,

एक सुंदर आधार मिला,


जिस घर में मैंने जन्म लिया,

और जीवन का संबल पाया है,

फिर कैसे दुनिया कहती है,

ये घर मेरा नहीं पराया है।।


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