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Ranjana Mathur

Abstract

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Ranjana Mathur

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हुआ पगफेरा

हुआ पगफेरा

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हे माता

हिन्दी तुझे नमन

तेरी जय-जय करते हम

युगों-युगों से तू

सहृदया रही हर भाषा की

ग्रहीत किया विशाल उर से सबको

आत्मसात किया निज में

किन्तु न हुई

परिणति सुखद

झेलने पड़े तुझे ही दुर्दिन

बनकर तेरा विनाश इक दिन

हुई विदेशिन एक आततायी प्रविष्ट

बनकर सखी तेरी

वर्चस्व कर बैठी शनैः-शनैः

तेरे निज आलय पर ही

तू बनी विवश हो

चेरी उसकी

कहने को इक दिन ऐसा भी आया

14 सितम्बर सन् 49 को 

कि तुझे कागज़ों में 

गया राजभाषा बनाया

किन्तु वह भी थी मात्र भ्रम की छाया

दुर्भाग्य ने वहां भी न छोड़ा

तेरा साया

चलता रहा उस विदेशिन का

तेरे ऊपर सरमाया

सत्तर वर्षों की

लम्बी रातें अंधेरी

सारी खुशियाँ 

ले गयीं तेरी 

बनी रह गयी तू मात्र

प्रतिमूर्ति सहनशीलता की 

और जन-जन की जुबान पर 

छाई रही वह

झेल लिया पग-पग पर तूने 

अगणित दंश तिरस्कार अपमान का

और हीनता का बोध 

 स्व सुपुत्रों से ही 

पाई बेरुखी 

और घृणित सोच उनकी

उच्चारित करने में नाम भी तेरा

निज सपूतों की दी यह पीड़ा 

झेल गई तू

रह कर अडिग कि

मेरे भी दिन आएंगे और 

आज आ गया वो सुखद पल

जब देश ही नहीं 

विदेशों में भी तेरा डंका बजाने वाला

आ गया सपूत तेरा

अब आ गये अच्छे दिन तेरे

आज हो गए तेरे पगफेरे

पुनः पुनः रूप निखरेगा

पुनः छाएगी तरुणाई 

मेरी हिन्दी 

आज फिर अपने

निज गृह है लौटकर आई। 



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