घर की औरत......a housewife
घर की औरत......a housewife
दिन भर घर में करती क्या हो तुम;
बस खाना और पड़े रहना ही तो आता है।
चलती फिरती मशीन हो गयी औरत को,
एक मर्द घर पहुँचते ही ऐसे धमकाता है।।
बिन पगार के नौकरी करती है,
उसके हिस्से में कभी इतवार नहीं आता।
प्रेम का अविरल सागर है वो,
पर उसके लिये किसी को प्यार नहीं आता।।
वक़्त नहीं बच्चों के पास कि,
बैठकर उनसे पास चार बात कर लें।
साथ निभाने वाला साथिया है,
पर गनीमत कि गुफ्तगू साथ कर लें।
चाहत खुद की खुशियों का गला घोंट,
सारी ज़िंदगी अपनी परिवार के नाम कर दे।
गर मुश्किलें आयें अपनों के ऊपर,
उस सारी मुसीबतों को वो अपने नाम कर दे।।
दिखाती नहीं वो रोष कभी भी,
जैसी परिस्थितियां हो वैसे जी जाती है।
वो घर की औरत है न साहब!
सारे गम और गुस्सा यूँ ही पी जाती है।
उसे माँग नहीं कभी अपनों से कोई,
बस परिवार के चेहरे पर मुस्कान रहे।
खुद के अस्तित्व की फिक्र नहीं,
बस बच्चों और पति की ऊंची पहचान रहे।।
सारा घर चला लेती है वो,
दिन भर एक ही पैर में खड़े खड़े।
और वो मर्द पूछता है उससे,
क्या करती हो तुम घर में पड़े पड़े।।
