'शेर'
'शेर'
ये क्या हुआ जो पतझड़ में भी जगह जगह फूल खिले हैं,
यकीन है मुझे वो गुज़री होगी यहां से,
मुझे उसके पैरो के निशान मिले हैं..
बस उसके सजदे में ही झुकता था ये सिर कभी,
फिर ये सिर कहीं झुकाया नहीं..
सारे सुख दुख साथ बांटने का वायदा भी तोड़ दिया उसने,
तभी तो अपनी शादी में भी बुलाया नहीं..
और जो हुआ था उस दिन क्या वो सच में हुआ नहीं था,
खा मेरी कसम तुझे रकीब ने छुआ नहीं था..
आदत है मेरी दर्द कभी आँखों तक आने नहीं देता,
तूने कैसे मान लिया मैं रोया नहीं था..
वक़्त तो लगेगा भूल जाने में उसको,
ये ऐब है साहब यूं ही नहीं छूट जाता है..
और वो तमाम कोशिशें कर्ता है हँसाने कि मुझको,
अगर मैं हँस दूँ तो पल भर में रूठ जाता है..

