शायद ही अब कभी तुमसे मिलूंगा
शायद ही अब कभी तुमसे मिलूंगा
शायद ही अब कभी तुमसे मिलूंगा,
उम्मीद ही नहीं कभी यकीन न करूंगा।
साजिश ए गम जो तुमने दिया है,
जिंदगी के दोहराये तक न भूलूंगा।
ना ही अब कभी तुम्हें जिंदगी में माफ कर पाऊंगा,
बेवफाई ऐसी फिर चाहकर भी वफा न कर पाऊंगा।
बहुत दर्द होता जब विश्वास टूटता है,
कोई जब अपना छोड़ गैर ढूंढता है।
आती नहीं बेहया अब शर्म तुमको,
कितना चाहा कितना प्यार किया,
हर कसम हर वादे पर आगाज़ किया,
फिर भी कोई गैर ही मिला तुमको।
आखिर किस तरह हालात गिराये,
गैरों की खातिर अपने नाज भुलाये।
जिंदगी बड़ा दर्द देती है,
जब कोई उम्मीद टूट जाती है,
लोग समझते नहीं जिंदगी को,
और सांस प्यार में लुट जाती है।
उसे चाहकर भी तो न कभी हम माफ कर पायेंगे,
उसकी सजा उसके कर्म-ए-हालात तय कर जायेंगे।
आज तक तो वो दिल के बहुत अजीज रहे हैं,
मगर वो अब नहीं काबिल नफरत के शरीक हैं।
