शापित गंगा
शापित गंगा
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर से
तुम उछलकर आती हो!
अपने प्रचंड़ वेग को कैसे
तुम संभालकर लाती हो?
शिव की घनी जटाओं से
तुम कैसे खुलकर आती हो?
अमृत रस ले आती हो
फिर मैली कैसे हो जाती हो?
तुम अगर पावन - पवित्र हो
फिर स्यामल कैसे बन जाती हो?
क्या तुममें भी गोता लगाया था?
कान्हा ने यमुना के जैसा!
या शेषनाग रहता था हृत्तल में!
कालकूट का विष बसता था!
क्यों समेटकर रहती अपने आँचल को?
खिलो, लहराओ, फैलाओ आँचल
मैल-मिट्टी को दे दो वापस।
मुक्त - रिक्त हो जाओ!!
क्यों दबी - दबी सी रहती हो?
क्यों घुटी - घुटी सी रहती हो?
कब तक जकड़ोगी जंजीरों में?
स्वस्थ - श्वेत हो जाओ...!
क्या नारी हो? क्या अब भी
गुलामी में रहती हो?
उबल जाओ, उफ़न जाओ!
तप्त बन जाओ...!!
फेंक दो कूड़ा - कचड़ा - करकट
कोपित बन जाओ...!!
शापित हो क्यों तुम हे गंगे...!
गंगा बन जाओ....!!
गंगा बन जाओ...!!!!