सच की दुकान
सच की दुकान
आइए जनाब, इस बाजार में एक दुकान अपनी भी है
यहां बिकते हैं वे आईने, जिनमे सूरत नहीं, सीरत नजर आती है
यहां मिलती है सच्चाई, सच्चा धर्म, मनुष्य की मनुष्यता
यहां वादे, दावे, झूठ नहीं बिकता
यहां मिलती है, नैतिकता, वफा, ईमानदारी
एक बार आइए और खुद हो कहाँ पाइये
मगर अफसोस कि इस दुकान में कोई नहीं आता
यहां रामायण नहीं राम मिलते हैं
यहां गीता नहीं, कृष्ण दिखते हैं
यहां अन्धविश्वास नहीं, विश्वास मिलते हैं
मगर दुख के साथ कहना पड़ रहा है
रोज की तरह आज भी दुकान खाली है
लोग जाते हैं, जहां झूठ, अधर्म, जिहाद, अंधविश्वास, जन्नत के सपने बिकते हैं
लोग झूठ में जीना पसंद करते हैं
लोग झूठे हैं, ये कहना पड़ता है
खुद से भागकर पता नहीं किसको तलाश रहे हैं लोग भागने वाले को भगवान तो क्या
वे खुद को भी नहीं मिलते
इसलिए मधुर झूठे विज्ञापनों पर छिपकर जाते हैं लोग
पता नहीं कहाँ से लग जाता है दूसरे को भगवान मानने का रोग
बाजार में भगवान तलाशने वाले जब लुटते हैं
तो समझते नहीं, किसी दूसरे बाजार में चले जाते हैं
आईने दिखाओ तो डर जाते हैं
मैं तो बैठा हूं सच की दुकान लगाकर
पत्थर ही खाए हैं प्यार की दुकान लगाकर
न जाने क्या होगा संसार का
जो भगवान से भीख, झूठों से सीख और बैनर के बाबाओं के पास जाकर लुटते हैं
और आते जाते हमारी दुकान पर पत्थर, जूते बरसा जाते हैं।