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Sangeeta Singhal

Tragedy

4.5  

Sangeeta Singhal

Tragedy

रजनी और राखी

रजनी और राखी

2 mins
274


रजनी


आज टूट गयी नींद भोर से भी पहले


तम तमस की कालित से पुती हुई ये गलिया ये इमारतें ये सड़कें

एक अजीब सी खामोशी एक अनूठा सन्नाटा से सनी हुई भीगी हुई ये हवाएं


सब रुका है सब थमा सा है मानो प्रकृति का विराम हो विश्राम हो

जाने कितने बलिदान हुए कितने कट मरे इसी अमन इसी शांति इसी सन्नाटे को पाने को

फिर क्यों इस रूह में एक सिहर सी है एक कम्पन सा है इस सन्नाटे में


क्या इस मानवता, सभ्यता के शोर से ही दूर भागना ही

इस प्रचण्ड विभावरी का मकसद नहीं था?

कही ऐसा तो नहीं यही उपद्रव का मैं, मेरी रूह नशा

करती है व्यसन करती है या वजह कुछ गहरी है?


लगता है ये मानवता का शोर ये शहरी रफ्तार का भी एक भावी मोल है

शायद ये बाहरी उपद्रव ये ऑफिसों के चीखे चिल्लाहटे,

एक आंतरिक भीतरी कोलाहल को ढकने में सहयोगी है


ये प्रचंड विभावरी, विश्राम नहीं बल्कि मेरी रूह

मेरी कांशसनेस का एक चन्द्रनिय आईना है प्रतिबिम्ब है


दिन, दोपहर के चमकते प्रकाश में भी सफलतापूर्वक छुपती

मेरी रूह रात्रि के घुप्प अंधेरे में पूरी नग्न अवस्था में बेनकाब हो जाती है


बाहरी शोर से ढकता छुपता ये चेतना का कोलाहल,

शांति अमन में अपनी धीमी धड़कन की मासूम आवाज़ को छुपाने में नाकाम है


आज फिर से टूट गयी नींद भोर से भी पहले..


राख़


आज हम गुज़र गए, शायद एक अभावी समा गुज़र गया है

वो बोले इसकी राख़ बड़ी भारी है, कहीं राम के तीरों की

या रहीम के जिहाद की मिलावट का काम तो नहीं ज़ारी है??


हम आसमां से मुस्कुरा कर बोले

शायद मेरे संघर्षों का बोझ है या शायद उसके बहे अश्रुओं का रोप है


हवा में रख दो शायद सूख जाए,

या झोंके से उड़कर किसी की आंखों में पानी बन जाये


जाते जाते भी उसे रुला जाने का उस राख में बोझ है,

या फिर शायद कोई छुपा हुआ रोष है


हवा में जो उड़ गई राख मेरे अभावी जीवन की तरह,

वापस मिट्टी में मिलकर शायद बन जाये एक नए सृजन की तरह


बुझते दीपक की लौ कि तरह ही क्या उस राख़ का हवा में

यूँ फड़फड़ाना ही मकसद है?

या तरु की रगों में धीर लहू की तरह बह जाना ही उसका शिखर है



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