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Sangeeta(sansi) Singhal

Tragedy

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Sangeeta(sansi) Singhal

Tragedy

रजनी और राखी

रजनी और राखी

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रजनी


आज टूट गयी नींद भोर से भी पहले


तम तमस की कालित से पुती हुई ये गलिया ये इमारतें ये सड़कें

एक अजीब सी खामोशी एक अनूठा सन्नाटा से सनी हुई भीगी हुई ये हवाएं


सब रुका है सब थमा सा है मानो प्रकृति का विराम हो विश्राम हो

जाने कितने बलिदान हुए कितने कट मरे इसी अमन इसी शांति इसी सन्नाटे को पाने को

फिर क्यों इस रूह में एक सिहर सी है एक कम्पन सा है इस सन्नाटे में


क्या इस मानवता, सभ्यता के शोर से ही दूर भागना ही

इस प्रचण्ड विभावरी का मकसद नहीं था?

कही ऐसा तो नहीं यही उपद्रव का मैं, मेरी रूह नशा

करती है व्यसन करती है या वजह कुछ गहरी है?


लगता है ये मानवता का शोर ये शहरी रफ्तार का भी एक भावी मोल है

शायद ये बाहरी उपद्रव ये ऑफिसों के चीखे चिल्लाहटे,

एक आंतरिक भीतरी कोलाहल को ढकने में सहयोगी है


ये प्रचंड विभावरी, विश्राम नहीं बल्कि मेरी रूह

मेरी कांशसनेस का एक चन्द्रनिय आईना है प्रतिबिम्ब है


दिन, दोपहर के चमकते प्रकाश में भी सफलतापूर्वक छुपती

मेरी रूह रात्रि के घुप्प अंधेरे में पूरी नग्न अवस्था में बेनकाब हो जाती है


बाहरी शोर से ढकता छुपता ये चेतना का कोलाहल,

शांति अमन में अपनी धीमी धड़कन की मासूम आवाज़ को छुपाने में नाकाम है


आज फिर से टूट गयी नींद भोर से भी पहले..


राख़


आज हम गुज़र गए, शायद एक अभावी समा गुज़र गया है

वो बोले इसकी राख़ बड़ी भारी है, कहीं राम के तीरों की

या रहीम के जिहाद की मिलावट का काम तो नहीं ज़ारी है??


हम आसमां से मुस्कुरा कर बोले

शायद मेरे संघर्षों का बोझ है या शायद उसके बहे अश्रुओं का रोप है


हवा में रख दो शायद सूख जाए,

या झोंके से उड़कर किसी की आंखों में पानी बन जाये


जाते जाते भी उसे रुला जाने का उस राख में बोझ है,

या फिर शायद कोई छुपा हुआ रोष है


हवा में जो उड़ गई राख मेरे अभावी जीवन की तरह,

वापस मिट्टी में मिलकर शायद बन जाये एक नए सृजन की तरह


बुझते दीपक की लौ कि तरह ही क्या उस राख़ का हवा में

यूँ फड़फड़ाना ही मकसद है?

या तरु की रगों में धीर लहू की तरह बह जाना ही उसका शिखर है



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