कौन सा है मेरा घर?
कौन सा है मेरा घर?
मैंने जिंदगी को कुछ करीब से देखा है
मेहनत करते हुए लोगों को हारते, नसीब से देखा है
किताबी बातें हैं कि हाथों की लकीरें स्वयं इंसान लिखता है
हुनर को मिट्टी में रौंदते हुए और मूर्ख को राज करते हुए देखा है
हर बच्चे का बचपन मैं तितली नहीं होती ना कोई चांद होता है।
वो कभी पानी पीकर तो कभी मैं भूखा सोता है
फिर ऊपर से लड़की होकर पैदा होना एक अभिशाप होता है
फिर इस बदकिस्मती का बोझ जीवन स्वयं उस पर हावी होता है
हर किसी के बचपन में तितली होती ना कोई चांद होता है
भूख से खाली पेट आंखों में नमकीन पानी होता है ना कागज की कश्ती होती है
ना सपना कोई आंखों में संजोता है ।होता तो आने वाले कल का भय
और जिंदगी की ना कटने वाली भयावह राहें।
फिर किया जाता है उसका विवाह एक अनबूझ पहेली, एक अनदेखी राह
एक अनजाना सा शख्स जिसके हाथों में दे दी जाती है उसकी बांह
कोई अनोखी बात नहीं यह तो सबके साथ होता है।
तुम क्या कुछ अनोखी हो ? क्या कुछ अलग सा हो रहा है।
सवाल करने का अधिकार नहीं बस एक पत्नी का टैग लगा होता है।
उसके फैसले, उसके जज्बात, उसका कोई मोल नहीं,
वह एक स्त्री है उसे मुंह खोलना नहीं, क्योंकि उसका तो अपना कोई घर ही नहीं।
मायके जाती है तो पूछते हैं कितने दिन को आई हो? कब जाओगी अपने घर।
अब तो तुम्हारी शादी हो गई अब तुम पराई हो।
ससुराल में कहते हैं अपने घर नहीं गई हो कितने सालों से?
बड़े कंजूस है घरवाले, लेने भी नहीं आते। कहां रिश्ता जुड़ गया कंगालों से
वह सोचती रहती है मां हूं बहन हूं बैठी हूं पत्नी हूं पर मेरा कोई घर नहीं है
पर यह भी सच है मेरे बिना कोई घर भी नहीं है।
यही बात एक स्त्री को जिंदा रखती है आंखों में सपने ना भी हो तो भी सुनहरे रुपहले बुन ही लेती है।
इन सब रिश्तों की डोरी में धागा बन माला पिरोती है।
