कर्म का लेखा कोरोना से सामना
कर्म का लेखा कोरोना से सामना
कर्म की जीवंतता, सर्व दृष्टि गोचर, ऐसे हो रहा।
विलासिता के भँवर में मानव, स्वतः प्राण आहुति दे रहा।
तृसत मानव, स्वयं की आधुनिकता से अभिशप्त हो रहा
स्वयं के किए को ही विश्व आज भोग रहा।
फिर क्यूँ त्राहि मां त्राहि माम मानव बोल रहा।
किस उन्नति की चाह में मानव! अपनी मानवता को यूँ खो रहा।
आगाह प्रकृति करती रही, तू4G, 5G का बाना बुनता रहा।
स्वयं का बुना, स्वयं को ही निगल रहा।
अब ना चित्कार कर, कर मदिरा पान कर प्रकृति दोहन में लग पड़,
धन सम्पति का भंडार भर।
कर सके तो कर इस संपदा से वापस जीव में प्राण भर,
बन स्वयंभू, जीवन का आधार बन।
नहीं! नहीं! नहीं दे सकता प्राण, तो विनाशक तो ना बन
प्रकृति को सँवार ले, जीवटता आधार बन।
ये धरा ये गगन कर रहे चित्कार सुन!
विनाश पग रोक कर शांति संदेश को फैला।
आ! प्रकृति गोद में शांत मन तू बना,
कह रही बुद्ध की वाणी जल बचा वन उगा
बसंत के गीत हर मानव अधर सजा।
आरोग्यता का वरदान बँटे, प्राकृतिक संतुलन फिर से बना।
आओ ये संकल्प सब उठाए, विश्व आपदा से सबको बचाए।
