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Sangeeta(sansi) Singhal

Abstract

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Sangeeta(sansi) Singhal

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इंसान कहां है

इंसान कहां है

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बिक रहे है अरमान बिक रहा है अमन, इंसान कहाँ है?

बिक रही है रूह बिक रहा है सम्मान, मेरी इंसानियत कहाँ है

बेच चुका हूं बचपन अपने आदर्श बनाने में,

दूर से देख रही मेरी शरारत हस्ती है मुझपर इस भार को कमाने में


बेच चुका हूं जवानी दो रोटी और बाप की प्रशंसा कमाने में

मेरे खोखले आदर्शो को इस व्यापार पर गर्व है, फिर क्यों बिखर गई है

मेरी रूह मेरी कांशसनेस इस सौदे को भुनाने मे

रूह से रूह का मिलन भी बिक रहा है,

माँ का प्यार भी बिक रहा है, बिक रहे है जज़्बात,

आत्मा का बस एक टुकड़ा लगेगा इस मुनाफे को पाने में


देखो देखो वो बेच रहे मुझे मखमली रेशमी गद्दे,

पर इन विकलांग आंखों में नींद कहाँ है,

शायद नींद भी बेच चुका हूं किसी खोखले खयाल को पाने में

आओ आओ मेरे अंधेपन का इलाज करो,

शायद बेच दूँ दो चार जज़्बात इलाज कराने में

चारो ओर बस दिख रहे प्रोडक्ट्स,

बस दिख रहे ब्रांड्स, इंसान कहाँ है ?


बिक रहा है आसमाँ बिक रही है धरती

बिक रही है हवा, प्राकृतिक संरचना कहाँ है

वैवाहीक गलियारों में बिकता है जीवन,

बिकती है यहाँ मौत भी, हे परमात्मा तेरी दुआ कहाँ है

प्रसाद की थालियों में, पीर की चादरों में बिकता है पुण्य,

हे नश्वर तेरा कर्मा कहाँ है

चारो ओर बस दिख रहे उत्पाद, इंसान कहाँ है ?


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