आख़िरी दफ़ा
आख़िरी दफ़ा
क़लम मेरी कांप रही थी
रूह फ़रेब भांप रही थी,
वरक़ पर लहू बिखर गया,
मैं आख़िरी कदम नाप रही थी,
स्याही रक्त से अब बदल गई,
कोरे काग़ज़ पर दर्द छाप रही थी,
पुराने ज़ख़्म अभी भरे नहीं थे,
रूह ज़ाती नफ़रत से कांप रही थी।
पंखे की ओर तकते हुए,
नसों से बेहता लहू माप रही थी,
जिन आंखों में सपने सजा करते थे,
आज वो आंसुओं से ताप रही थी।
दीवार को ताड़ते घंटों बीत जाते,
जली हुई सिगरेट मेरे इरादे भांप रही थी,
जाम के प्याले में चेहरा नज़र आया,
लाल लहू देखकर सांसे हाँफ रही थी।
मकानों में सुकून मिला नहीं,
तो मैं मरघट की राह नाप रही थी।
