शब-ए-वस्ल की दास्तां
शब-ए-वस्ल की दास्तां
भागते - दौड़ते आख़िरकार हम ठहर ही जाते हैं ,
बढ़ी धड़कनों के दरमियान ख़ुद को करीब पाते है,ं
तेरी आँखों में शरारत साफ़ नज़र आती है मुझे,
वो तेरी हल्की सी मुस्कान कितना चिढ़ाती है मुझे,
तू हौले से अपना हाथ मेरी कमर पर टिकाता है,
तू क़ातिल निगाहों से ही मुझ पर इश्क़ जताता है
तेरी मख़मली उंगलियाँ मेरे बटन से खेलती है
बिस्तर की चादर हमारे जिस्मों से उलझती है,
मेरी ज़ुल्फो को संवारते हुए, तू गीत गुनगुनाता है,
मेरी कमर को नापते हुए, तू थोड़ा सा शर्माता है,
तेरे कहे अल्फ़ाज़ मेरे कानों में देर तक गूंजते है,
तेरे इश्क़ के निशान मेरी क़फ़ा पर भी दिखते है,
तेरे होंठों का स्वाद लबों पर मेरे भी चढ़ा हुआ है,
तेरे संग होने का ख़्वाब, नींदें मेरी भी उड़ा रहा है
धीरे से मेरे पैर दबाते हुए,तेरे हाथ सरकते है,
आँखों में खोते हुए, मेरे कुर्ते के बटन खुलते है,
मेरे माथे की शिकनें मिटाते हुए, तू चूमता है मुझे,
मेरे हुस्न का दीदार करते हुए, तू निहारता है मुझे,
मेरे नाज़ुक हाथ तेरे सीने पर डोलने लगते है,
हंसते हुए पलंग पर हम संग लोटने लगते है,
तू मेरे कांधे के तिल को हल्के से सहलाता है,
मेरी बंधी ज़ुल्फ़ को आहिस्ता से बिखराता है,
तेरे हाथ मेरे नाफ़ के इर्द गिर्द घूमने लगते है,
सांसों से ही तेरी रोंगटे मेरे खड़े होने लगते है,
तेरी दिलकश उंगलियाँ थमती है नफ़स भर
तेरी आँखें मुझे ताकती है इक नज़र भर,
हुआ महसूस यूं , सुबह फिर शाम होने को है
चंद बिखरे लफ्ज़ ,आज इक नज़्म होने को है।

