बेबसी की टूटती जंजीर
बेबसी की टूटती जंजीर
बेबसी सी मजबूरियों की
तड़फड़ाती झुझलाहटो की
वही रोजमर्रा की समस्याये
एक नहीं सौकड़ों व्यथाएँ
मन मंजर तैयार नहीं क्यों
समझ से परे हों समस्याएँ
मन भीतर बाहर व्याकुल
कुछ बोलती कुछ भीचतीं
ये समस्याएँ ये बेबसी फिर
घुटन सी लगती व्यथायें
कोई और नहीं ये ऱोजमर्रा
घर बाहर व मुलाजमी की
कुछ नहीं तो टी.वी देखनें
की घुटन सी ये बेबसी सी
समस्याएँ ही समस्याओ सी
फिर एक न होती ये कभि
ये बेबसी हम दो दिलो की
न माननें की न सुनने की भी
ये आदते सी रोज - रोज की
कुछ और नहीं ये बेबसी मन
की भी और तन की भी है
रहा जीवन गुजर ये छटपटा
ती झुझलाहट सी बेबसी की
मजबूरियों की बेबसी सी
कर गुजर कर भी देखती ये
दोहराती जाती ये बेदताएँ
रह गुजर करती मन भीतरी
उगलती सी निगलती सी ये
बेबसी की. कुछ छटपटाती
बेदताएँ ये पीढ़ाएँ ये पीढ़ाएँ
लगता मन को तैयार नहीं ये
हो बाहर वेदताएँ ये बेबसी
डूबती सी डुबाती सी मन ये
रोजमर्रा की ये छोटी-छोटी
कट रहा जीवन रह बिना के
खिलखिलाती चाहतो बिना
निपटाती समय को भी ये
मन चिंतन की क्यों वेदनाएँ
सोचता रहता हूँ ये बेबसी
कैसे टूटे समय की ये जंजीर ।
