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yogita singh

Abstract

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yogita singh

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रिश्तों का मोल

रिश्तों का मोल

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अब जो अकेले पड़े तो रिश्तों का मोल समझ आया

मकान और घर के बीच का अंतर समझ आया

छोड़ चले थे जिस घर को हम 

जिन मकानों की ख्वाहिशों ने हमे शहर बुलाया

पक्की सड़कों की चाह में मै वो मिट्टी का घर छोड़ आया

कांपते हुए मा की आंखो में मैंने एक फोन था पकड़ाया

एक फोन की दूरी पर ही हूं मै मां ऐसा उनको बतलाया

पिता की लाठी था मै जिसने मुझे इस काबिल था बनाया

अपने सपनों को साकार करने के लिए मै उनको अकेला छोड़ आया 

त्योहारों पर भी भला मै कभी कहा अपने घर को जा पाया 

भागती दौड़ती जिंदगी में फिर अचानक एक अजीब सा मोड़ आया

एक वायरस जिसे कोरोना कहते हैं 

हर तरफ मौत का ऐसा कोहराम मचाया

तब इस भीड़ भरी दुनिया में खुद को अकेला पाया

उस दिन अचानक से गाव से मेरी मां का फोन आया

छोड़ आया था जिन गलियों को उन्होंने ही वापस बुलाया

सपनों की दौड़ में क्या खोया था तब समझ आया

पैसे को तोला था अपनों के प्यार से

इस बात को सोच के फिर मै बहुत पछताया!



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