रहस्य …….
रहस्य …….
इक कोठरी है जेल की
जिसमें मैं रहती हूँ।
दरवाज़ा खुला है,
न ताला पड़ा है,
न चौकीदार कोई,
न जेलर खड़ा है,
फिर भी न जाने क्यों
यातनाएँ सहती हूँ ?
इक कोठरी है जेल की,
जिसमें मैं रहती हूँ।
चाहूँ खुली हवा में उड़ना ,
चाहूँ अपने प्रिय से मिलना,
चाहूँ सच के संग विचरना,
पता नहीं क्यों,
ज़िद पर अड़ी रहती हूँ।
इक कोठरी है जेल की
जिसमें मैं रहती हूँ ।
मोह बंधन में जकड़ गई हूँ,
माया के उलझे तानों में,
बन मकड़ी सी अकड़ गई हूँ,
राग द्वेष के मीठे ज़हर की,
लहरों संग क्यों बहती हूँ ?
इक कोठरी है जेल की,
जिसमें मैं रहती हूँ।
आई थी कुछ नाम कमाने,
अपने आप को “उससे” मिलाने,
मन मंदिर में “उसे” बसाने,
अहम के कीचड़ में डूबी,
उठती हूँ फिर ढहती हूँ।
इक कोठरी है जेल की
जिसमें मैं रहती हूँ।
प्रियतम आओ मुझे छुड़ाओ ,
आत्मज्ञान की राह दिखाओ,
भवसागर से पार लगाओ,
आँखें तकती राह तुम्हारी ,
इसी इन्तज़ार में रहती हूँ ।
इक कोठरी है जेल की,
जिसमें मैं रहती हूँ।