ख़्वाब सुंदर सा………
ख़्वाब सुंदर सा………
ख़्वाब था वो इक हसीन सा,
जब देखा फलक से उतरते हुए
इक परग्रही अजीब सा,
थोड़ा डरी ,पर सँभली
हिम्मत बांधी और बोली:
“ओ परग्रह के वासी
क्या वहाँ भी सूरज खिलता है,
हर रोज़ सवेरा निखरता है?
क्या वहाँ भी रात महकती है?
और स्फटिक चाँदनी चहकती है?
बोलो,
क्या बसंत बयार चलती है?
प्रेमी के मन को छलती है?
क्या फूलों पर तितलियाँ डोलती हैं?
और कोयल कू कू बोलती है?
क्या नदियाँ करती है कल-कल ?
और पानी बहता है अविरल?
बोलो,
क्या कण कण से प्यार बरसता है?
रब ऐसी रचनाएँ रचता है?”
“मैं तो मशीनी मानव हूँ “वो बोला
“सब कुछ है संवेदना नहीं ,
सुख दुख और वेदना नहीं ,
यह सुंदर प्रकृति वहाँ कहाँ ,
यह प्यार अनुभूति वहाँ कहाँ ,
इस धरा सा स्वर्ग और कहाँ
यहाँ मानव तारों सा झिलमिलाते हैं,
इसलिये तो हम सम्मोहित हो
इस धरा पर आते हैं।”