रावण दहन
रावण दहन
सदियों से जलाते रहे रावण को
पर रावण अब तक नहीं मरा
बाहर की काया चाहे कितनी बदली हो
अंदर का रावण बदला नहीं ज़रा
मर्यादाएं अब भी सिसक रही है
सच्चाइयों का कोई नहीं पता
भृष्टाचार ने चहूँ ओर घेरा है
कहाँ जाना है किसी को नहीं पता
धन की लालसा लपक रही है
संस्कारों ने है घर छोड़ा
पाप पुण्य की पहचान विलुप्त है
मानवता ने है दम तोड़ा
काम, क्रोध, मोह, लोभ ने
ऐसा बिछाया है जाल अपना
भय बिना जीवन जीना
बस लगता है अब एक सपना
है हर गली हर मोहल्ला
दशकंधरों से भरा हुआ
चलती काया जो दिखती हैं
है उनका ज़मीर मरा हुआ
यहाँ छलावा पग पग पर है
सत्ता वाले भी नोच रहे हैं
दूभर हो गया खुल कर जीना
होंठ सिले हैं, केवल सोच रहे है
जीवन का अर्थ व्यर्थ हो रहा है
तमाशबीनों की कमी नहीं हैं
न्याय व्यवस्था कमज़ोर पड़ी है
रामराज युग मात्र तस्वीर बनी है
कागज़ के रावण जलने से
रावणरूपी सोच को कैसे मारेंगे
जब तक अंतरआत्मा न जागेगी
पापी पुतलों से कैसे हारेंगे
भविष्य गर सुरक्षित रखना है
हर प्राणी को एक प्रण लेना होगा
दशकंधरों के छल कपट दुष्ट चरित्र का
हर हाल में अब दहन करना होगा
ए नारी अब खड़ग उठा माँ अम्बे का
समय की पुकार यही दर्शाती है
धरती भी अब थर्रायी हुई है
लहू लुहान उसकी भी छाती है
रूप धरना होगा चंडिका का
परीक्षा चाहे कितनी भारी हो
वध करना होगा आधुनिक असुरों का
आज के युग की सुशिक्षित नारी को
रावण दहन की तब पुष्टि होगी
जब किसी अबला का अब हरण न हो
घिनौने समाज को बदलना होगा
माँ बहनों का अब और दमन न हो.....