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विजय बागची

Romance

4.5  

विजय बागची

Romance

रात और दिन

रात और दिन

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वैसे तो पूरा दिन गुज़ार लिया मैंने,

पर ये रात है कि गुज़रना नहीं चाहती,

न जाने किस का इन्तिज़ार है इसे,

नींद की सेज़ पाकर भी, बिखरना नहीं चाहती,


कमबख्त! खामोशी भी साथ लेकर है आती,

नींद भी संग है उसके यही एहसास कराती,

पर वह क्यों सोना नहीं चाहती,

कभी मुझ में खोना नहीं चाहती,


सवालों का जवाब कौन देगा मेरे, बताओ ?

पास ही है बैठी. मुख खोलना नहीं चाहती,

तब, तब मैं अपनी ही क्रोध की अग्नि में

रोज़ टूट-फूट जाता हूँ,


ऐसे ही बक-बक करके,

खुद ही से रूठ जाता हूँ,

फिर वह थकावट ही है

जिसका बोलबाला होने लगता है,

आँखों के मंद, शरीर के शिथिल

होने का इशारा होने लगता है,


ऐसे में नींद ही है जो मुझे पास बुलाती है,

न जाने कब और कैसे मुझे सुलाती है,

न सुबह की याद दिलाती है,

न ही रातों का पता बताती है।


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